पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/१४५

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रुद्राष्टाध्यायी - [ नवमों- भाषार्थ-यह गायत्री मन्त्रही सर्वोपरि मंत्र है यही ब्रह्मकी उपासना वा ध्यानका परम मंत्र है इसके सौ अर्थ मिलते हैं संस्कृतम कई अर्थ हमने लिखे हैं संक्षेपसे भाषार्थ लिखते हैं। उस प्रकाशात्मक प्रेरक अन्तर्यामी, विज्ञानानन्दस्वभाव, हिरण्यगर्भोपाध्यवच्छिन्न अथवा आदित्य के अन्तर स्थित पुरुष वा ब्रह्मके सबसे प्रार्थना किये हुए संपूर्ण पापके वाह संसारके आवागमन दूर करने में समर्थ, सस्य ज्ञान आनन्द आदि तेजको हम ध्यान कर ते हैं, जो सविता देव हमारी बुद्धियोंको सत्कर्म के अनुष्ठानके निमित्त प्रेरणा करता है, जग- के उत्पन्न करनेवाले उन परमदेवताका जो कि मूर्लोक, भुवोंक, स्वर्लोक व्यापी भग इ, उनका हम ध्यान करते हैं ॥ ३ ॥ विशेष-योगि याज्ञवल्क्यने जो अर्थ किया है उसका वर्णन करते हैं, उसका तेज हम ध्यान करते हैं, यहां तत् भर्गका विशेषण नहीं है, तथापि तत्के प्रयोगसे ही यका प्रयोग होजाता है, यही इस श्लोकका माशय है कि तत्के साथ में यत् शब्द सदा जानना ॥ १ ॥ संपूर्ण भाणी और संपूर्ण भावका उत्पन्नकर्ता सेवन और पवित्र करनेसे उसे सविता कहते ^हैं ॥ २ ॥ जिस कारण कि वह प्रकाशित होता क्रीडा करता आकाशमें दीप्तिमान होता सम देवताओं से स्तुतिको प्राप्त होता है, इस कारण उसे देव कहते हैं ॥ ३ ॥ हम उस भर्ग तेजका ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धिवृत्तियोंको बारंवार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में प्रेरणा करता है || ४ || भ्रस्ज-घातु पकाने में है जिस कारण यह पकाता शोभित दीप्तिमान होता हुआ अन्त में जगत् को हरण करता है ॥ ५ ॥ कालाभिरूप में स्थित होकर आग्नसूर्य स्थित अपने रूपसे प्रकाशित होता है, इस कारण उसको मर्ग कहते हैं ॥ ६ ॥ मकारसे सबलोकोंको भयमीत करताहुआ, रसेप्रजाको प्रसन्न करता है, गसे जो निरन्तर गमना' गम करता है इस कारण उसको मर्ग कहते है, परमार्थ चिन्ता सविता और भर्गमें भेद नहीं है ॥ ७ ॥ ससारके भयसे भीतहुए प्राणी जिसकी प्रार्थना करते हैं । जो यह सूर्यके अन्तर्गत भर्ग है इसको मुमुक्षु जन्म मृत्यु और दैहिक दैविक भौतिक दुःख, इनके नाश करने के निमित्त ध्यान करते हैं वह पुरुष सर्यमंडल में ध्यान करना चाहिये ॥ ८ ॥ ९ ॥ इस प्रकार गायत्रीका माहात्म्य वर्णन करके उसीके महाप्रभाव सात व्याहतियोंका वशेषण जानना | किस प्रकारका वह भर्ग है ? जो भूरादि सात लोकोंको व्याप्त कर स्थित हो रहा है, अर्थात् भूः (भूमि ) भुवः ( अन्तरिक्ष ) स्वः ( स्वर्लोक) महः ( महर्लोक) जनः ( जनलोक ) तपः (तपलोक ) सत्यम् (सत्यलोक) इस प्रकार क्रमसे लोकोंको व्याप्त करके यह भर्ग इन सात लोकोंको दीपकके समान प्रकाश करता है । अथवा सात महाव्याहृति ही अराधिका भगविसे भेद करके प्रकाश करती हैं, अर्थात् वह तेज कैसा है जो ( आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः सरोम् ) जल, ज्योति, रस, अमृत, ब्रह्म, भूः भुवः सः ॐ रूप है, उसका ध्यान करते हैं ॥ ३ ॥ मन्त्रः । कर्यानाश्चत्रुऽआहु॑बदती सुदावृ॑धुत सखा । काशचि॑िष्ठयाबुता ॥४॥