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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६११

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५८० वायुपुराणम् हिरण्यकशिपुर्नाम प्रथमं हात्विगासनम् | दित्या गर्भाद्विनिःसृत्य तत्राऽऽसोनोच्चसंसदि ॥ हिरण्यकशिपुस्तस्मात्कर्मणा तेन स स्मृतः ऋषय ऊचु: हिरण्यकशिपोर्नाम जन्म चैव महात्मनः | प्रभावं चैव दैत्यस्य विस्तराद्द्ब्रूहि नः प्रभो सूत उवाच कश्यपस्याश्वमेधोSसूत्पुण्यो वै पुष्करे पुरा | ऋषिभिर्देवताभिश्च गन्धर्वैरुपशोभितः उत्कृष्टेनैव विधिना आख्यानादौ यथाविधि | आसनान्युपक्लृप्तानि काञ्चनानि तु पश्च वै कुशपूतानि त्रीण्यत्र कूर्चः फलकमेव च । मुख्यत्विजश्च चत्वारस्तेषां तान्युपकल्पयेत् शुभं तत्राऽऽसनं यत्तु होतुरर्थे प्रकल्पितम् । हिरण्ययं तथा दिव्यं दिव्यास्तरणसंस्तृतम् अन्तर्वत्नी दितिश्चैव पत्नीत्वं समुपागता । दश वर्षसहस्राणि गर्भस्तस्या अवर्तत ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५६ १॥५७ पुत्र दिति के गर्भ से निकल कर सभामण्डप में लगे हुए सर्वोच्च सिंहासन पर, जो पुरोहित के लिये निर्दिष्ट था, समासीन हो गया । अपने इसी अद्भुत कर्म के कारण वह हिरण्यकशिपु नाम से स्मरण किया गया ।४६-५१॥ ऋषियों ने कहा- प्रभो ! दैत्यपति महात्मा हिरण्यकशिपु का जन्म वृत्तान्त एवं प्रभाव का विस्तार पूर्वक वर्णन हमसे कीजिये ॥५२॥ सूत ने कहा - ऋषिवृन्द ! प्राचीन काल में पुष्कर क्षेत्र में कश्यप का एक अश्वमेध यज्ञ हुआ था, जिसमे ऋषि देवताओं एवं गन्धर्वो के समूह आकर उस यज्ञ को शोभावृद्धि कर रहे थे । उस महान् यज्ञ में शास्त्रीय विधि सम्मत आख्यान आदि के लिये पाँच सुवर्ण निर्मित आसन स्थापित किये गये थे १५३-५४। कुश से पवित्रित तीन आसन थे, एक पर कूर्च (कुश की मुट्ठी) और पाँचवे पर फलक स्थापित था । चार मुख्य पुरोहितो के लिए उन चार की स्थापना की गई थी। उनमें एक पाँचवाँ जो सर्वश्रेष्ठ आसन था वह होता के लिये निर्दिष्ट किया गया था । वह दिव्य आसन नीचे से ऊपर तक सब सुवर्णमय था, एवं विछावन से सुशोभित हो रहा था । गर्भवतो दिति, कश्यप को पत्नी के रूप में बगल में बैठी थी उसके उदर मे बस सहस्र वर्ष का गर्भ था ।५५-५७१ ठीक उसी समय वह गर्भ माता के उदर से निकलकर उस पाँचवें O

  • अत्र संघिरार्प: ।