पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६१२

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सप्तषष्टितमोऽध्यायः स तु गर्भो विनिःसृत्य मातुर्वै उदरात्तदा । उपक्लप्तासनं यत्तु होतुरर्थे हिरण्ययम् || निषसाद स गर्भोऽत्र तत्राऽसीनः शशंस च आख्यानपञ्चमान्वेदान्महर्षिः काश्यपो यथा । दृष्ट्वा मुनयस्तस्य नामाकुर्वस्तु तद्विधम् हिरण्यकशिपुस्तस्मात्कर्मणा तेन विश्रुतः । हिरण्याक्षोऽनुजस्तस्य सिंहिका तस्य चानुजा ॥ राहोः सा जननी देवी विप्रचित्तेः परिग्रहः हिरण्यकशिपुर्वैत्यश्वचार परमं तपः । शतं वर्षसहस्राणां निराहारो ह्यधःशिराः तं ब्रह्मा छन्दयामास दैत्यं तुष्टो वरेण तु | सर्वामरत्वं विप्रेशाः सर्वभूतेभ्य एव च ॥ योगाद्देवान्विजित्य सर्वदेवत्वमास्थितः दानवाचासुराश्चैव देवाः समा भवन्तु वै । मारुतेर्यन्महैश्वर्यमेष मे दोयतां वरः एवमुक्तोऽथ ब्रह्मा तु तस्मै दत्त्वा यथेप्सितम् । दत्त्वा तस्मै वरान्दिव्यांस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ हिरण्यकशिपुर्वैत्यः श्लोकैर्गीतः पुरातनः राजा हिरण्यकशिपुर्या यामाशां निवेवते | तस्यै तस्यै दिशे देवा नमश्चक्रुर्महर्षिभिः ५६१ ॥५८ ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ सुशोभित आसन पर, जो होता के लिये निर्दिष्ट था, बैठ गया और अपने पिता महर्षि कश्यप की भांति वही से वेद एवं आख्यानात्मक पाँचवे वेद का व्याख्यान देने लगा। उस बालक को इस प्रकार देखकर सभी ऋषियों ने तदनुकूल नामकरण किया। अपने उक्त अद्भुत कर्म के कारण वह हिरण्यकशिपु नाम से विख्यात हुआ । उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष था और सिंहिका छोटी बहन थी । वह सिहिका देवी विप्रचित्त की पत्नी तथा राहु की माता हुई । दैत्यवर हिरण्यकशिपु ने परमकठोर तपस्या की । एक लाख वर्षो तक निराहार रहकर वह शिर को नीचे करके तपस्या में लीन रहा १५८-६९१ | हे विप्रवर्यवृन्द ! दैत्य हिरण्यकशिपु की इस घोर तपस्या से सन्तुष्ट होकर ब्रह्मा ने अपने वरदान से उसे प्रसन्न किमा, जिससे उसने सभी जीवों द्वारा मृत्यु को न प्राप्त करने अपने योगवल से देवताओं को भी पराजित कर देने तथा अमरो (देवताओं) के सभी धर्मो को प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त उसने यह वरदान याचना की कि सभी दानव एव असुर भी देवताओं के समान ऐश्वर्यशाली हो जायँ और मारुत (वायु) में जो महान् ऐश्वर्य है वह भी हमें प्राप्त हो ।' हिरण्यकशिपु को ऐसी वरदान याचना को सुनकर ब्रह्मा ने उसकी मनः कामनापूर्ण की और उस दिव्य वरदानों को देने के उपरान्त वे वहीं अन्तर्हित हो गये । उस परमप्रभाव- शाली दैत्यहिरण्यकशिपु की प्रशंसा पुराने लोग इलोकों में गाया करते थे, जिसका आशय इस प्रकार है ।६२-६४ | 'वह राजा हिरण्यकशिपु जिस-जिस दिशा को जाता था उस उस दिशा के लिये महर्षियों समेत देवगण