सम्भाषणम्:अथर्ववेदः/काण्डं २/सूक्तम् २७

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विषयः योज्यताम्
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२.२७.६ जलाषभेषजम्[सम्पाद्यताम्]

जल, जलाष और भेजष : इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में क्या जल शब्द और उसके वाच्यार्थ से कोई सहायता मिल सकती है? ‘‘जलम्’’ शब्द पाणिनिधातु पाठ के अनुसार ‘जल् अपवारणे’’ अथवा ‘‘जल घातने’’ से निष्पन्न हुआ प्रतीत होता है। यही शब्द वैदिक ‘‘जलाष’’ में स्थित माना जाये तो जलाष में जल के वाच्यार्थ के अतिरिक्त गति, दीप्ति और आदान अर्थ वाली अष् धातु भी है। अतः जलाष शब्द एक ऐसे तत्व का वाचक हो सकता है, जो अपनी गति, दीप्ति और आदान क्रिया के द्वारा किसी अवांछनीय अथवा अशोभन वस्तु का अपवारण या घातन कर सके। निघण्टु में ‘‘जलाष’’ शब्द को उदकनामों के अतिरिक्त सुखनामों में भी परिगणित करके इसी सम्भावना की ओर संकेत किया गया है। वेद में जलाष शब्द प्रायः भेषज शब्द के साथ संयुक्त रूप से प्रयुक्त है। इस बात से भी यही संकेत मिलता है कि जल शब्द किसी ऐसे तत्व का वाचक है, जो दुःख का अपवारण करने वाली भेषज (चिकित्सा) भी बन सकता है। ‘‘जलाष’’ के साथ भेषज शब्द भी उदकनामों में परिगणित है। यह इस बात का संकेत हो सकता है कि जल और अष् धातुओं के मिश्रण से निष्पन्न ‘‘जलाष’’ शब्द भी किसी प्रकार के अशुभ और अवांछनीय तत्व के अपवारण या निवारण में सहायक होकर सुखावधायक किसी तत्व की ओर संकेत करता है। उणादिकोष में भेषजम् शब्द की व्याख्या में जो शब्द मिलते हैं, उनसे पता चलता है कि भेषज शब्द भी मूलतः किसी सुमंगल अथवा सुख से जुड़ा हुआ है।[1] अतः यह निश्चित है कि जलाष और भेषज कोई सुख अथवा सुमंगल करने वाला तत्व हैं। वेद में ‘‘भिषक्ति’’ क्रिया भी मिलती है जिसे सायणाचार्य ने ‘‘भिषज्यति’’ का रूपान्तर मानकर रोगी के रोग-निवारण के अर्थ में ही ग्रहण किया है[2]। जिस मन्त्र में यह क्रिया आयी है, उसके संदर्भ को देखें तो ज्ञात होता है कि इस क्रिया का कर्ता सोम है जिसे काव्य द्वारा कृत्नु, विश्वजित्, उदभित्, ऋषि और विप्र होने वाला बताया गया है[3] और तब कहा गया है कि वह नंगे को आच्छादित करता है और आतुर विश्व की चिकित्सा करता है, जिससे अन्धा देखने लगता है और पंगु भी चल पड़ता है[4]। अन्यत्र इन्दु नाक सोम व्यक्तित्व को ‘‘नानाधियः’’ बनाने वाला माना गया है[5] , जिसके कारण मनुष्य तक्षणकर्ता, भिषक्, ब्रह्मा आदि के भिन्न-भिन्न व्रतों को पालने करने में सक्षम होता है[6]। यही इन्दु एक सौ एक उदकनामों में भी एक है। तो क्या इन्दु नामक उदक कोई ऐसा तत्व माना जा सकता है, जो पुरुष रूपी पंगु को गतिशील करता है तथा प्रकृति रूपी अन्धे को ज्ञाननेत्र प्रदान कर सकता है? सांख्यदर्शन में पुरुष और प्रकृति के संयोग को ही यह द्विविध कार्य करने की क्षमता प्रदान की गई है। क्या वेद में पुरुष और प्रकृति के अतिरिक्त किसी अन्य तत्व को भी माना गया है? निस्सन्देह इन्दु को नानासूर्याः और नानाधियाः कहकर[7] एक ऐसा ही तत्व बना दिया गया है, जो अनेक क्रियाओं को करने के कारण ‘‘नानाधियः’’ और साथ ही अनेक प्रकार की दृष्टि देने के कारण ‘‘नानासूर्याः’’ भी कहा जा सकता है। जैसा कि आगे इन्दु शब्द की व्याख्या में बताया क्या है, वह निस्सन्देह एक ऐसा अद्वैत ज्योतिर्मय तत्व है, जो सभी प्रकार के नानात्व में रूपान्तरित हो सकता है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि निघण्टु के एकसौ एक नामों को समाविष्ट करने वाला उदक शब्द इन्दु के समान ही नानात्व ग्रहण करने वाला कोई तत्व होगा। यही बात जलाष और भेषज शब्दों से ध्वनित होने वाले अपवारण, घातन, गति, दीप्ति, आदान आदि क्रियाओं से भी प्रकट होती है। जलाषभेषज रुद्र  : इस प्रसंग से यह भी स्मरणीय है कि वेद में जलाषभेषज शब्द रूद्र का विशेषण होकर भी प्रयुक्त है। शुचि, उग्र और जलाषभेषज रूद्र एक है, जो अपने हाथ में एक तीखे आयुध को धारण करता है[8]। नीलशिखण्ड, कर्मकृत तथा जलाष भेषज रुद्र एक ओषधि है, जिससे प्रार्थना की गई है कि वह रसहीन पदार्थों को नष्ट कर दे[9]। जलाष भेषज रूद्र गाथपति और मेधपति है तथा शांति के इच्छुक व्यक्ति के लिए सुखरूप है[10]। कुछ ऐसे भी मन्त्र हैं, जिनसे ध्वनित होता है कि कोई ऐसा सर्वोच्च देव है, जो वसुओं के सहित इन्द्र, आदित्यों के सहित वरुण तथा रुद्रों के सहित रूद्र होकर जलाष होता हुआ हमें शांति प्रदान कर सकता है[11]। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि जिस देव को इन अनेक देवों के रूप में प्रकट होने वाला कहा गया है, वह स्वयं परब्रह्म परमात्मा ही है और उसकी ब्राह्मी शक्ति ही वह जलाषभेषज है जिसके द्वारा वह अपने को नानात्व में अभिव्यक्त करता है। वह जालाष नामक ब्राह्मी शक्ति जल अथवा उदक रूप में कल्पित की जाती है और उसके द्वारा अभिसिञ्चन और उपसिञ्चन करके जीवन प्रदान किया जा सकता है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है – जालाषेणाभिषिन्वत् जालाषेणेपसिन्चत। जालाषमुग्रं भेषजं तेन नो मृड जीवसे।। अथर्व ६,५७,२ Puranastudy (सम्भाषणम्) ०५:४५, २९ एप्रिल् २०२४ (UTC)उत्तर दें