पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९८

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स्वाराज्य सिद्धिः

यह वेदान्ताचार्यो का सिद्धांत है। अब इस श्रज्ञान में यह शंका प्राप्त होती है कि यदि वह अज्ञान अनेक अध्यास में श्रापही कारण है तो आत्माश्रय दोष स्पष्ट प्रतीत होता है, यदि अन्य अज्ञान उसका कारण हो तो वह भी अध्यस्त ही मानना होगा इसलिये वह दूसरा अज्ञान भी यदि अपने अध्यास के लिये अपनी ही अपेक्षा करेगा तो श्रात्भाश्रय दोष ज्योंका त्यों बना रहा, यदि पहले श्रज्ञान की अपेक्षा करेगा तो अन्योऽआश्रय दोष प्राप्त होगा और यदि किसी तीसरे श्रज्ञान की अपेक्षा करेगा तो फिर भी आत्माश्रय, अन्योऽन्याश्रय और पुनः प्रथम अज्ञान की श्रपेक्षा से चक्र का दाप प्राप्त होगा । फिर भी वह और चतुर्थ अज्ञान की श्रपेक्षा करेगा तो पंचम षष्ट सप्तम श्रादिकों की आगे श्रागे अपेक्षा शांन न होने से अनवस्था दोष प्राप्त होगा । जहां जाकर आगे श्रज्ञानान्तर की अपेक्षा का श्रभाव होता है उस अज्ञान को अध्यास का हेतु बतलाओगे तो प्रागू लोप और विनि गमन विरह ये दोप प्राप्त होंगे इसलिये अज्ञान को भी अध्यस्त बतलाना श्रयथायथं है । श्रब इस शंकाके जाति रूप समा धान को प्रवृत्त किया जाता है।

(चिद्भाने चिति: इव) जैसे अन्य मतों में सबका प्रकाशक चेतन रूप ज्ञान चिद्रूप स्वभासन में भी भासकांतर की श्रपेक्षा के विना आपही समर्थ है (भेदे भिदा इव ) और जैसे तार्किकों के मत में घट पट श्रादिकों में भेद व्यव हार का हेतु भद् है सो भेद घट पट आदिकों के परस्पर करता हुआ ही समर्थ है, वैसे ही (या माया निज परयो निर्वाह म्वतः समर्था) जो माया अर्थात् अविद्या अज्ञान अपने तथा