पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ ५9
प्रकरणं १ श्लो० 45

से ही स्वप्रसिद्धि को प्राप्त होता है। (यथातमः इदुम्) जैसे राहु चद्रमा का ढाप करके फिर उस चंद्रमा से ही प्रसिद्ध होता है। अर्थात् जैसे राहु चन्द्रमा को श्राच्छादन करता है फिर सो राहु चन्द्र करक तम रूपस दख्खा जाता है, वैसे हा अज्ञान भा चेतनको श्राच्छादन करता है और फिर उस चेतन से ही अपने को प्रसिद्ध करता है। (भूयः) चेतन के आवरण के अनन्तरं पुनः सो अज्ञान (विक्षिप्य) मिथ्या ही जगत् को उत्पन्न करके (भ्रमयति ) चेतन को, यह मैं हूँ, यह मेरे हैं, इत्यादि भ्रांति से युक्तकर देता है । (हन्त) बड़ा खेद है (दुर्निरूपः) ऐसा होने पर भी वह अज्ञान चेतन में अध्यस्त होने से स्वप्नकी तरह अनिर्वचनीय है ।॥४७॥ यदि कोई कहे कि अपनी सिद्धि का कोई स्वयं ही हेतु नहीं बन सकता, इसलिये सब अध्यासों के हेतु रु८प अज्ञान के अध्यासमें अन्य किसी हेतुकी सिद्धि न होनेमे स्वय अज्ञान ही की सिद्धि नहीं होगी, तो उसका समाधान आगेके श्लोकोंमें कहते हैं

विद्भाने चितिरिव या भिदेव भेदे निर्वाहे निज

परयोः स्वतः समर्थः । संभाव्येत घटनापटी

यसी सा संमोहं जनयति विभ्रमेण माया ।। ४८।।

जैसे सर्व प्रकाशकचेतनरूप ज्ञान के भेद व्यवहारमें हेतु भेद है तैसे ही माया अपने और अपने कार्य के निर्वाह में स्वयं ही समर्थ है, वह माया भ्रांति करके भोह उत्पन्न करती है, हेतु रहित असंभवित श्रर्थकी घटना में चतुर है ।॥४८॥ पूर्व अनादि, अनिर्वचनीय और साक्षात् ज्ञानैक निवन्र्य श्रज्ञान का लक्षण बतलाया । यह अज्ञान चेतन में अध्यस्त है,