पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/७१

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प्रकरणं १ श्लो० 31

कथन श्रप्रमाण है, हे ठगने वाले धूर्त ! दैव से तू एक ही नष्ट हुआ है, आहा ! दूसरों को भी नाश करने में क्यों प्रवृत्त हुआ है ? ॥३१॥
(जनानां ) प्राणियों को (गौरः स्थूलः पटुः श्रहम्) मेंगौर रंग वाला हूं, मैं स्थूल अर्थात् मोटा हूँ, मैं नवयुवक हूं, मैं कुशल हूँ (इति) इस प्रकार (तनौ ) शरीर में (श्रात्मबुद्धि स्वाभाव्यात्) आत्मबुद्धि स्वभाव से (एवसिद्धा ) ही सिद्ध है। (इति) इसलिये उक्त गौरोहं इत्याकारक प्रत्यय स्वभावसिद्ध देहात्मता को (अधिगम्यत्) बोधन करता हुआ (ते) तेरा (दर्शनम्) शास्र ही (निष्फलम्) निष्फल है । अर्थ यह है कि देह में आत्मबुद्धि तो विना ही उपदेश से प्राणियों को स्वत : सिद्ध है फिर तुम्हारे शास्त्र उपदेश ने किस श्रज्ञात अर्थ का ज्ञान कराया है? किसी का भी नहीं । इसलिये तेरा शास्र निरर्थक है । (यदि द्वेषात्प्रवृत्तम् ) यदि तेरा शाख्य अकारण ही वेद प्रमाण से द्वेष धारण कर प्रवृत्त हुआ हो तो (वत) खेद् है कि (द्वेषु मूलम्) वेद से द्वष करने वाला तेरा शारू द्वषमूलक होने से (नतराम् प्रमाणम्) अत्यंत ही अप्रमाण है। इस प्रकार किसी तरह से भी तेरा शास्रा प्रमाण न होने से (शठ) हे धर्म. से अपने को तथम अन्य जनों को वंचन करने वाले धूर्त, (दैवात्) श्रशुम प्रारब्ध से (एकः त्वं नष्ट:) एक तू तो नाश को प्राप्त हुआ ही है अर्थात् आप तो किसी पूर्वजन्म कृत पाप कर्म से वेद से विपरीत बुद्धि अनात्मदर्श होकर नाश हुश्रा ही है। परन्तु (हन्त) बड़ा खेद है कि तू (परान्) अन्य पुरुषों को (हन्तुम्) वेद् विरुद्ध शाखा रचनोपदेशों द्वारा वेद विरुद्ध श्रुद्धि को उत्पन्न करके नाश करने के लिये श्रोत् नरकगामी करने