पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/६८

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स्वाराज्य सिद्धि


(समम्) समानं ही है (इति ) यह समानता (दीपांकुरादौ

विदितम्) दीप में और बीजांकुर आदिकों में प्रसिद्ध है। भाव यह है, तैलादिक कारणके सम होने पर सर्व दीपकों का प्रकाशन बीजादिक हेतु के सम होने पर बीजांकुरों की व्यक्ति विशेषत्वा दिक भी सम ही देखा है । हेतु के विषम होने से ही स्वभाव की विषमता होती है। इसलिये सुख दुःखादिकों की विचित्रता में स्वभाव कारण नहीं हो सकता । (यदि) यदि (वैषम्यम्) सुख दुःखादिकों की विचित्रता (कर्मजन्यम्) कर्म जन्य है अर्थात पुण्य पाप के अधीन है (गदसि ) ऐसा त् कहेगा तो (जनेः) शरीर की उत्पत्ति से (पूवमाप ) पहल भा ( श्रध्यात्म सिद्धिः) शरीर से भिन्न आत्मा की सिद्धिं हो ही जाती है। भाव यह है, शरीर की उत्पत्ति काल में विचित्र विचित्र पुण्य पापरूप कम का होना ही असंभव है, इसलिये प्राचीन पुण्य पापरूप अदृष्ट कम का कर्ता शरीर से भिन्न नित्य आत्मा चेतनरूप बलात्कार से सिद्ध होवेगा ॥२९॥

मानं प्रत्यक्षमेकं यदि कथय कथं भासितं ते
प्रमाणं संभाव्यार्थ' सदोषं यदि तदपि बली
किं न वेदो विदोषः । न ह्यध्यक्तं विनाचेंर्न च
तव सुगमा मानताऽध्थत्तमात्रे ज्ञानं नान्यस्य
बोद्व' प्रभवति च भवांस्तेन मिथ्या प्रलापी॥३०

यदि तू एकं प्रत्यक्ष प्रमाण ही को मानता है तो तरे
वचन में प्रमाणता क्या है? वह तो दोष सहित है । यदि
तेरा वचन निश्चयार्थ वाला है तो भी दोषयुक्त ही है।