पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/५१

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प्रकरणं १ श्लो० 23

मर्व भूत भौतिक अर्थात् पृथिवी श्रादिक भूत तथा रूपादिक श्रौर नेत्रादिक भौतिक उत्पत्ति क्षणमात्र स्थिति वाले पदार्थो को और (अणु चयम्) पृथिवी आदिक चारों भूतों के परमाणु समुदाय को (भोग्यम्) भोग के योग्य है ऐसा (प्रजल्पन्) तृ तो कहता है (अन्तः) और शरीर के अंतर (ईदृशम् ) बाह्य पदार्थो की तरह क्षणिक ( स्कंधानाम् ) उक्त स्प विज्ञान श्रादि स्कंधों के ( पंचकम् ) पंचक को (भोक्त संघातम्) भोक्ता समुदाय रूप कहता है सो ( ते ) तेरे को (इदम् ) यह क्षणिक त्वादिका (मानान्तरेण ) प्रत्यक्ष आदिक प्रमाणसे अथवा किसी अन्य प्रमाण से (प्रमितम्) तेरा निश्चय हुआ है (किमुत ) श्रथवा (एषा) यह क्षणिकत्व श्रादि कल्पना (त्वदीया प्रौढि:) तरी बुद्धि का विशुद्ध वैभव है ? (किंवा ) अथवा तरा यह (मोहात्) म्रांति से (प्रलापः) व्यर्थ ही प्रलाप है ? (किमथ) श्रथवा, ( जगत् विप्रलिप्सा) अधिकारी जनों के ठगने की इच्छा से है ? भाव यह है कि, हे कुबुद्धे, जड़, वैनाशिक, यह तेरी श्रप्रमाणिक कल्पना सरल हृदय आधिकारी जनोंको श्रकार णिक द्वेष कर वेद मार्ग से भ्रष्ट करने के लिये है अथवा मृग्र्व लोगों के मन के रंजन करने के लिये है ? कहदे ॥२२॥

संघीभावः कथं वा वलन विरहिगां भगुराराणा

मएणूनां संघो नान्यः कथं वा विषय पदमियात्

कश्धसघ विधन्ते । स्कंधानां सन्निपात: कथ मिव

कियतां भोक्तना का च धारा कम्य स्नां भाग

मोचो वद जड स्लफलं केन वा दर्शनं ते ॥ २३॥