पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/३३

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प्रकरणं १ श्लो० 15

को ही जगत् का कारण कहते हैं। श्रथर्थात् यह जगत् अकः स्मात् होजाता है, इस प्रकार कहते हैं । (अन्ये ) दूसरे कर्म मीमांसा मत वाले श्राचार्य ( कर्म ) कर्मो को ही जगत् का कारण कहते हैं और (अपरे) जिनके श्रागे अब और कोई भी मत श्रेष्ठ नहीं है, ऐसे वेदांताचार्य (माया शबलितम्) माया से प्राप्त है विचित्र भाव जिस ब्रह्मको ऐसे (ब्रह्म ) माया शबलित ब्रह्म को ही जगत् का अभिन्न निमित्त उपादान कारण कहत ह । इस प्रकार जगत् के कारण विषय में मत मेद हैं। (तस्मात्) इसलिये (सोपि ) उसका भी (विमृश्य: ) जिज्ञासु जन को विचार करना आवश्यक है अर्थात् जीवात्मा के विचारने से तथा जगत् के कारण भूत ईश्वर के विचारने से जिज्ञासु को तत् पदार्थ और त्वं पदार्थ का ज्ञान सम्यक होजाता है। तत् पदार्थ और त्वं पदार्थ के सम्यक् ज्ञान होने से महावाक्य के अर्थ का सम्यक् बोध होजाता है, इसलिये जिज्ञासु को जीव-ईश्वर का विचार करना श्रावश्यक कतव्य ह ।। १४ ।।

स्वमत सर्वस्व रूप ब्रह्म को लक्षण श्रौर प्रमाण से बोधन करने के लिये आवश्यक सब बातें कहते हैं

यस्मादुत्पत्ति गुप्ति क्षति रपि जगतां यञ्चशास्त्रेक

योनिः सर्वज्ञ'मायया यत्सहज सुख सदद्वैत

संवित्स्वरूपम् । तद्वब्रह्मस्वप्रकाशं श्रुति शिखर

गिरां सैव तात्पर्यभूभिः स्वात्मासो यं विदित्वा'

जनिमृति जलधिं निस्तरंतीह सन्तः ॥१५॥