पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२२९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ 221
प्रकरणं 3 श्लो० 55

नहीं है, तब श्रागे सुकेशादिक संत् शिष्य ‘तमञ्यन्तस्त्वं हि नः पिता योऽस्माकं श्रविद्यायाः पारं पारं तारयसि* उस पिप्पलाद् गुरु का शिर से प्रणिपात पूर्वक तथा चरण कमलों में पुष्पां जलिश्रों के प्रक्षेप पूर्वक पूजन करते हुए कहते हैं कि मैं ही ब्रह्म हूं इस प्रकार हमारे ब्रह्म रूप शरीरके ब्रह्म विद्याके उपदेश प्रयत्न से उत्पन्न करने वाले होने से श्राप ही हम लोगों के पिता हैं जो आप हम शिष्यों के गुरु हैं। श्राप ही ने केवल कृपा करके विप रीत ज्ञान, संशय, जन्म मरण, रोग दुःखादिक ग्रहान्वित मूला ज्ञान रूप महोदधि से परपार रूप अपुनरावृत्ति लक्षण स्वस्थ ब्रह्म रूप मोक्षको विद्या रूप जहाज से प्राप्त कराया है । इससे भी यह सिद्ध हुआ कि शब्द से ब्रह्मका अपरोक्ष ज्ञान होता है ॥६॥ शंका-तुम्हारे वेदान्तमतमें चित् का अभेद् अर्थात् प्रमाताचेतन का अभेद ही विषय की अपरोक्षता में कारण है। चेतनों का अभेद् वृत्ति द्वारा होता है और वृत्ति इन्द्रिय द्वारा होती है। इस प्रक्रिया से अपरोक्षता में भी इन्द्रियों की अपेक्षा अवश्य है । अब इस शंका का समाधान करते हैं

चेतन्यस्यापरोक्षयं स्वरसनिजदृशो मुख्यमन्या

नपेच गोण तटु गोचरेष्वावरण विरहिते तत्रं

तादात्म्यवत्सु । बाह्य चैतन्य योगं घटयितु

मुचिता बृतिरक्षप्रसूता वाक्योत्था मोहमात्रं

विघटयति चितः स्फूर्तिरन्यानपेक्षा ॥७॥