पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१०७

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प्रकरणं १ श्लो०५३

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जन्य पुण्य से ( देवत्वम्) देवभाव को (एति) प्राप्त होता है और (पातकैः) वेदविहित कर्मो के न करने से तथा वेद निषिद्ध कम के करने से उनके पापों से (अध:) नरक को (ब्रजति ) प्राप्त होता है। शेष बचे हुए पापों से फिर नरक से आकर इस लोक में (स्थावरादीन् देहान् प्राप्य ) स्थावर श्रादिक नीच देहों को प्राप्त होकर बहुत प्रकार से (प्रणश्यन्) नष्ट भ्रष्ट होता हुश्रा फिर कभी दैवयोग से अपने सुख दु:खरूप फल के देने के लिये एक साथ ही उद्यत हुए (ताभ्याम्) निज पुण्य पापों से (क्वचिदपि ) कदाचित् अर्थात् किसी काल में (मानुषत्वम्) मनुष्य शरीर को भी ( लभते ) प्राप्त होता है फिर, (कर्मज्ञानो भयेन विधिपदं व्रजति ) कर्म और उपासना करके हिरण्यगर्भ के स्थान भूत ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और ( तस्मिन् ) उस हिरण्यगर्भ लोक में (कोपिमुच्यते ) कोई विरक्त उपासक ब्रह्मा के साथ मुक्त होजाता है और (रागी) भोगों की इच्छावाला ( भूयः जनिंप्रत्येति) ब्रह्मलोक से प्राकर यहां इसी लोक में पुनः पुनः जन्मको प्राप्त होता है । (इति ) इस प्रकार (विषमम्) बहुत दुःखकर ऐसे (इह) इस संसार में (लोकः) जीव ( बंभ्रमीति) पुनः पुनः अर्थात् वार वार भ्रमता है, क्षणमात्र भी विश्रांति को प्राप्त नहीं होता ॥५२॥
दुःखं स्वर्गात् प्रपाते बहुविध नरके गर्भ वासेऽति
दुःखं नि:स्वातन्न्याशनाया ग्रहगद रुदितेः
शेशवे दुःखमेव! तारुण्येऽमर्ष लोभ व्यसन परि
भवोद्वेग दारिद्रयदुःखं वार्द्धक्ये शेोकमोहेन्द्रिय
गर्दै द:खमन्तेऽतिदःखम् ॥५३॥