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श्रीविष्णुगीता।


यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ १३६ ॥
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण भो देवाः ! दुष्पूरेणानलेन च ॥ १३७ ।।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ १३८ ॥
यूयं तदिन्द्रियाण्यादौ नियम्य विबुधर्षभाः ।
पाप्मानं प्रहतैनं हि ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ १३९ ॥
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यों बुद्धेः परतस्तु सः ॥ १४० ।।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
हत शत्रु सुरश्रेष्ठा : कामरूपं दुरासदम् ।। १४१ ॥
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥ १४२ ॥


उसी प्रकार आत्मज्ञान कामके द्वारा आवृत रहता है ॥ १३६ ॥ हे देवतागण ! ज्ञानीके नित्यवैरी इस दुष्पूरणीय कामरूप अग्निके द्वारा ज्ञान आच्छन्न है ॥ १३७ ।। इन्द्रियां, मन और बुद्धि, इस कामके अधिष्ठान कहे जाते हैं, इन्हीं के द्वारा यह ज्ञानको आच्छन्न करके देहीकोमोहित किया करता है ॥ १३८ ॥ इस कारण हे देवश्रेष्ठो ! तुम पहले इन्द्रियोंका संयम करके इस ज्ञानविज्ञाननाशक पापी कामको नाश करो ॥ १३९ ॥ (देहकी अपेक्षा) इन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं. इन्द्रियोंकी प्रापेक्षा मन श्रेष्ठ है, मनकी अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धिसे श्रेष्ठ है वही आत्मा है ॥१४०॥ हे देवश्रेष्ठो! इस प्रकार बुद्धि की अपेक्षा श्रेष्ठ आत्मा)को जानकर और बुद्धिके द्वारा मनकी संयत करके कामरूप दुर्निवार शत्रुका नाश करो।। १४१॥ महामायाके द्वारा आवृत होनेके कारण मुझे सच नहीं देख सक्ते है । यह मूढ संसार मुझे