पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/२७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
श्रीविष्णुगीता।


देवा ऊचुः ॥ ३६॥

देवादिदेव ! हे नाथ ! विश्वेश्वर ! जगत्पते ।
 सच्चिदानन्दरूपस्त्वमपरिच्छेदतो विभुः॥ ३७॥
 एक एवाऽद्वितीयोऽसि विश्वात्मा विश्वपालकः ।
 अनादिश्चाऽप्यनन्तोऽसि विश्वसेव्य ! नमोऽस्तु ते ॥ ३८ ॥
 त्वमेवासि प्रभो ! कार्य्॑यं त्वमेव कारणं सदा।
 कार्यकारणरूपस्त्वं सर्वात्मक ! नमोऽस्तु ते ॥ ३९ ॥
 भवानेव जगन्नूनं जगदेव भवान् विभो !।
 भवत्येव जगद् भाति जगद्रप ! नमोऽस्तु ते ॥ ४० ॥
 जगद्भूयो भवत्येव वर्त्तते किन्तु तत्वतः ।
 न वर्त्तते भवाँस्तत्र विश्वाधार ! नमोऽस्तु ते ॥ ४१ ॥
 तवैव प्रकृतिस्त्वत्तोऽव्यक्ताऽपि व्यक्तिमागता।
बुद्ध्यहङ्कारतन्मात्राभूतेन्द्रियतया सदा ॥ ४२ ॥


देवगण बोले ॥३६॥

 हे देवादिदेव ! हे नाथ ! हे विश्वेश्वर ! हे जगत्पते ! आप सच्चिदानन्दरूप, व्यवधानरहित, विभु अर्थात् व्यापक, अद्वितीय, एक. विश्वात्मा,विश्वपालक, अनादि और अनन्त है,हे विश्वसेव्य ! आपको प्रणाम है ॥ ३७-३८ ॥ हे प्रभो ! सदा आप ही कार्य और आप ही कारण हैं, आप कार्यकारणरूप हैं, हे सर्वात्मक ! आपको प्रणाम है॥३६॥हे विभो! आप अवश्य ही जगत् हैं और जगत् ही आप हैं एवं आपमें ही जगत् भासमान होता है, हे जगद्रूप! आपको प्रणाम है ॥४०॥ पुनः आपमें ही जगत् स्थित है परन्तु तत्त्वतः आप उसमें नहीं हैं, हे विश्वाधार ! आपको प्रणाम है ॥ ४१॥ आपहीकी अव्यक्ता प्रकृतिभी व्यक्ता होकर बुद्धि अहङ्कार तन्मात्रा पञ्चभूत और इन्द्रियरूपसे सदा स्थूलसूक्ष्मात्मक विश्वको सर्वथा उत्पन्नकरती है, हे प्रभो! आप जगतकी मूल जो प्रकृति उसके भी मूल हो और स्वयं मूलशून्यहो, आप-