पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१५८

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श्रीविष्णुगीता । विनाशयन्तीति वयं तवाधुना पश्याम इत्थं वपुषि ध्रुवं प्रभो ! ॥ ३४ ॥ रुद्राश्च सर्वे वसवश्च निर्जस आदित्यसंघा मघवा प्रजापतिः । विश्वेसुरा वायुरसंख्यकामरा दैत्या ह्यनन्ताः पितरस्तथर्षयः ।। ३५ ॥ त्वत्कायजास्त्वां बहुधा यतन्ते ज्ञातुं परन्ते नहि पारयन्ते । अतो विमुग्धास्तव मायया ते पुनर्विशन्त्येत्य तवैव काये ॥ ३६ ॥ कारणं कारणानां त्वमेवाक्षरं ब्रह्म विज्ञेयमेकं त्वमेवास्यहो । आश्रयस्थानमेकं निधानं परं विश्वसङ्घस्य जानन्ति ते कोविदाः ॥ ३७॥ त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता प्रकार हम निश्चय इस समय आपके शरीर में ब्रह्माण्डोंकी उत्पत्ति स्थिति और लयके विषयको देख रहे हैं॥३४॥ एकादश रुद्रगण, द्वादश आदित्यगण, अष्ट वसुदेवतागण, इन्द्र, प्रजापति, विश्वेदेवा, वायु, ये सब असङ्ख्य देवगण, अनन्त ऋषि एवं पितृगण और अनन्त असुरगण सबही आपके शरीरसे प्रकट होकर आपको जाननेकेलिये अनेक प्रकारसे यत्न करते हैं परन्तु वे पार नहीं पाते हैं इसलिये आपकी मायासे विमुग्ध होकर वे फिर भी जाकर आपहीके शरीरमें प्रवेश कर जाते हैं ॥ ३५-३६॥ अहो ! आपही कारणों के कारण हैं, आपही अक्षर ( अविनाशी) परब्रह्म हैं और एक आपही जाननेके योग्य हैं, एक आपही विश्वसमूहके आश्रयस्थान और परमरक्षास्थान हैं, इस बातको प्रसिद्ध पण्डितगण जानते हैं ॥ ३७॥ आप विकार-