पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१५६

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श्रीविष्णुगीता। विभो ! त्वयैकेन हि मध्यलोक ऊर्ध्वं तथाऽधश्च दिशां समूहः। अनाद्यनन्तः समयस्तथासौ व्याप्तोऽस्ति धीर्येन विमोहिता नः ॥ २७ ॥ गुरो ! जगत्कारण ! ते शरीरा- दद्वैतरूपात्तव शक्तिराद्या। याऽचिन्तनीया प्रकटत्वमेति ब्रह्माण्डमेषा तनुते ह्यनन्तम् ॥ २८ ॥ पूर्व महत्तत्त्ववराभिमानी जातस्ततोऽहङ्कृतितत्त्वमानी।

देवस्ततो मानसतत्त्वमानी निर्माति चोत्पद्य विचित्रदृश्यम् ।। २९ ।। ततः क्रमेणैव सुरा इमे सदा तन्मात्रतत्त्वस्य किलाभिमानिनः हे विभो । एक आपसे ही ऊर्ध्वलोक,अधोलोक, मध्यलोक, अनादि अनन्त यह दिक्समूह और अनादि अनन्त यह काल व्याप्त हैं जिससे हमारी बुद्धि विमुग्ध हो रही है ॥ २७ ॥ हे जगत्कारण ! हे गुरो ! अद्वैतरूप आपके शरीरसे जो आपकी अचिन्तनीया आद्या शक्ति प्रकट होती है वही अनन्त ब्रह्माण्डोंका विस्तार करती है ॥ २८ ॥ पहले श्रेष्ठ महत्तत्वका अभिमानी देवता प्रकट होता है, अनन्तर अहङ्कारतत्त्वको अभिमानी देवता और उसके पश्चात् मानसतत्त्वका अभिमानी देवता प्रकट होकर विचित्र दृश्यकी रचना करते हैं ॥२६॥ उसी क्रमसेही पञ्चतन्मात्राके अभिमानी देवता, पञ्चज्ञानेन्द्रिय और पञ्चकर्म्मेन्द्रियके अभिमानी देवता और पञ्चमहाभूतोके परम अभिमानी देवता ये सब सदा आपके शरीरसे प्रकट होते हुए