पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३२

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११२ 'श्रीविष्णुगीता। श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाऽधिगच्छति ॥ ३८ ॥ अज्ञश्चाश्रधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नाऽयं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।। ३६ ॥ योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निवघ्नन्ति दिवौकसः ! ॥ ३७॥ तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठत बुभुत्सवः ! ॥ ३८ ॥ नादत्ते कस्याचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । आज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ ३९ ॥ ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः । श्रद्धावान् तत्परायण और जितेन्द्रिय व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञानको प्राप्त करके अतिशीघ्र परमशान्ति (मोक्ष) को प्राप्त होता है ॥३५॥ अश्रद्धालु संशयात्मा और मूढ़ व्यक्ति नाशको प्राप्त होता है। संशयात्मा व्यक्तिकेलिये इहलोक और परलोक दोनों कष्टप्रद होते और उसको सुख नहीं होता है ॥ ३६॥ हे देवगण ! जिस व्यक्तिने योगद्वारा सकल कर्म्मोको आत्मामें अर्पण किया है और जिसने आत्मज्ञानद्वारा सकल संशय छिन्न कर दिये हैं ऐसे आत्मज्ञानसम्पन्न व्यक्तिको कर्म्म बन्धन नहीं कर सकते हैं ॥ ३७॥ अत: हे जिज्ञासुदेवगण ! अपने अज्ञानसे उत्पन्न हृदयस्थ संशयको ज्ञानरूपखडग द्वारा छेदन करके इस योगकाअवलम्बन करो॥३८॥ ईश्वर किसीका भी पाप ग्रहण नहीं करते हैं और पुण्य भी ग्रहण नहीं करते हैं। अज्ञानके द्वारा ज्ञान आच्छन्न है इसी कारण जीवधारी मोहित होते हैं अर्थात् इन्द्रियासक्त होते है ॥ ३९ ॥ किन्तु आत्मज्ञान के द्वारा जिनका वह अज्ञान नष्ट होजाता है, सूर्य जिसप्रकार अन्धकारको नाश करके सकल वस्तुओको प्रकाशित कर देता है