पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३१

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श्रीविष्णुगीता। १११ किञ्चित् कदापि कुत्रापि कथञ्चिन्नैव लभ्यते ॥ २८ ॥ । आत्मज्ञानोपलब्धौ हि हेतुरास्ति गुरोः कृपा । आत्मज्ञानन्तु मत्प्राप्तौ कारणं नात्र संशयः ।। २९ ।। तद्वित्त प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेश्यन्ति वो ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।। ३० ॥ यज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यथ निर्जराः । येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यथात्मन्यथो मयि ॥३१॥ अपि स्थ यदि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमाः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यथ ॥ ३२ ॥ यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽमराः ! ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ ३३ ॥ नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धाः कालेनाऽऽत्मनि विन्दथ ॥ ३४ ॥ कहताहूँकि बिना श्रीगुरुकृपाके कभी भी कहीं भी किसी प्रकारसे भी का भी प्राप्त नहीं होता है॥ २८ ॥ आत्मज्ञान प्राप्तिका कारण गुरुकृपाही है और मुझे प्राप्त करनेका कारण आत्मज्ञान है, इसमें सन्देह नहीं। प्रणिपात, जिज्ञासा और गुरुसेवाके द्वारा उस ज्ञानका लाभ करो तत्वदर्शी ज्ञानिगण तुमको ज्ञानका उपदेश देगे॥३०॥हे देवगण । जिस जानलेनेसे पुनः इस प्रकारके मोहको नहीं प्राप्त होगे। औरजिसके द्वारा भूतगणको आत्मामे और अनन्तर मुझमें सब कुछ देख सकोगे॥३१॥ यदि सकल पापियोंसे भी तुम अधिक पापीहो तो भी सम्पूर्ण पापरूप समुद्रको ज्ञानरूपी जहाज द्वारा सम्यक्रूपसे तर जाओगें ॥३२॥ हे देवगण ! जिसप्रकार प्रज्वलित अग्नि, काष्टसमूहको भस्मसात् करती है उसीप्रकार ज्ञानरूप अग्नि सकल कर्मोंको भस्मसात् करदेती है ॥ ३३ ॥ क्योकि इस लोकमें ज्ञानके समान पवित्र और कोई नहीं है, योगद्वारा सिद्धि प्राप्त होनेपर उस आत्मज्ञानको यथासमय अपने स्वयं प्राप्त करोगे