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श्रीविष्णुगीता।


कविं पुराणमनुशासितार
मणोरणीयांसमनुस्मरेदयः
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप
मादित्यवर्ण तमसः परस्तात् ।। ७४ |
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन
भक्त्या युक्तो योगवलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ ७९ ॥
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरान्ति
 " तद्वः पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।। ७६
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगंधारणम् ।। ७७ ॥ ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् ।


कवि (सर्वज्ञ )पुराण (अनादि ) अनुशासिता (नियन्ता) सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतम, सबका पालन करनेवाला, अचिन्त्यरूप. प्रकृतिसे परे स्थित, सूर्य के समान वर्णवाले पुरुषका, शरीरत्यागके समय भक्तियुक्त होकर स्थिर चित्तसे योगबलद्वारा भ्रूयुगलके मध्य में प्राणवायुको भलीभांति स्थिर करके जो ध्यान करता है वह उस दिव्य परमात्मस्वरूप पुरुषको प्राप्त होता है ॥ ७४-७५ ॥ ब्रह्मज्ञगण जिसको अक्षर कहते हैं,वीतराग यतिगण जिसमें प्रवेश करते हैं और जिसको जाननेकी इच्छा करके साधक ब्रह्मचर्य व्रत धारण करते हैं मैं आपलोगोंको वह पद संक्षपसे कहता हूँ॥ ७६ ॥ सब इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे प्रत्याहरण करके मनको हृदयमें स्थिर करके और मूर्द्धा अर्थात सहस्त्रारमें अपने प्राणको रखकर योगधारणामें स्थित होता हुआ और ॐ इस एकाक्षर ब्रह्मस्वरूप मन्त्रको उच्चारण