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श्रीविष्णुगीता।


यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयाऽर्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।। ६८ ॥
 स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान् मयैव विहितान् हितान् ॥ ६९ ॥ अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
अन्यानन्ययजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ ७० ॥
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ ७१ ॥
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मरतामराः ! | मप्यर्पितमतिस्वान्ता मामसंशयमेष्यथ ।। ७२ ॥ अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पूरुषं दिव्यं भक्तो यात्यनुचिन्तयन् ॥ ७३ ॥


उपासना करते रहते हैं ॥ ६७ ॥ जो जो भक्त जिस जिस मूर्तिकी श्रद्धापूर्वक उपासना करनेकी इच्छा करता है, मैं उस उस भक्तकी उस उस मूर्ति में वैसीही दृढ़श्रद्धा विधान करता हूँ ॥ ६८ ॥ वह भक्त उस श्रद्धासे युक्त होकर उस मूर्तिकी आराधना करता है और तदनन्तर मेरेही द्वारा सम्पादित हितकारी उन सकल कामनाओंका लाभ करता है ॥ ६६ ॥ परन्तु उन क्षुद्रबुद्धि व्यक्तियोंका वह फल विनाशशील है क्योंकि औरोकी उपासना करनेवाले अन्य लोकोको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझको प्राप्त होते हैं ॥ ७० ॥ अल्पबुद्धि व्यक्ति मेरे नित्य सर्वोत्तम और परमस्वरूपको न जानकर, मैं अव्यक्त अर्थात मायातीत हूं तौभी मुझको व्यक्तिभावको प्राप्त समझते हैं॥७॥ इस कारण हे देवतागण ! सर्वदा मुझको स्मरण करो, मुझमें मन और बुद्धिको अर्पण करनेपर निःसन्देह आपलोग मुझको प्राप्त होगे॥ ७२ ॥ अभ्यासयोग द्वारा एकाग्र और अनन्यगामी चित्तसे चिन्ता करते करते साधक दिव्य परमपुरुषको प्राप्त होता है