पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१०१

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
८१
श्रीविष्णुगीता।


मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशिषो निर्ममाश्च यतध्वं विगतज्वराः ॥ ७४ ॥
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति साधकाः
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ।। ७० ॥
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्वित्त नष्टानचेतसः ॥ ७६ ॥
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ७७ ॥ इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।। ७८ ॥
श्रेयान् स्वधर्म्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्टितात् ।।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ७९ ॥


मुझमें सब कर्म अर्पण करके आत्मामें चित्तको रखते हुए निष्काम और ममताशून्य होकर शोक त्यागपूर्वक कर्म करो॥ ७४ ॥ जो साधक मेरे इस सिद्धान्तके अनुसार श्रद्धावान् और दोषदृष्टिविहीन होते हुए कर्मोको नित्य करते रहते हैं वे कर्म करनेवाले होनेपर भी कर्म्मोसे मुक्त रहते हैं ॥ ७५ ॥ किन्तु जो केवल दोषदर्शन करते हुए मेरे इस सिद्धान्तके अनुसार कर्मानुष्ठान नहीं करते हैं उन विवेकहीनोंको सर्वज्ञानविमूढ़ और नष्ट जानो ॥ ७६ ॥ ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करता है और प्राणिमात्रही अपनी प्रकृतिका अनुसरण करते हैं अतः इन्द्रियोंका निग्रह क्या करेगा ? ॥ ७७ ॥ प्रत्येक इन्द्रियका अपने अपने अनुकूल विषय में अनुराग और प्रतिकूल विषयमे द्वेष अवश्य होता है अत एव इन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये क्योंकि ये दोनों मुमुक्षुके प्रतिपक्षी हैं ॥७॥ सुचारुरूपसे अनुष्ठित परधर्मकी अपेक्षा दोषसहित स्वधर्म श्रेष्ठ है, अपने धर्ममें स्थित रहते हुए मरना भी अच्छा है किन्तु