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श्रीविष्णुगीता।



सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ ६८ ॥
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति निर्जराः । कुर्याद्विद्वाँस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥ ६९ ॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
योजयेत् सर्वकर्माणि विद्वान युक्तः समाचरन् ॥ ७० ॥
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कम्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते ॥ ७१ ॥
तत्त्ववित्तु सुपर्वाणः ! गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ ७२ ॥ प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥ ७३ ॥


विनष्ट होजायँगे और मैं वर्णसंकरका कर्ता हो जाऊँगा, इस प्रकारसे मैं ही इन प्रजाओंके नाश का कारण बनूँगा ॥८॥ हे देवतागण ! कर्ममें आसक्त अज्ञानीलोग जिस प्रकार कर्म करते हैं उसी प्रकार कर्ममें अनासक्त ज्ञानीलोग भी लोगोंको स्वधर्ममें प्रवर्तित करने के लिये इच्छुक होकर कर्म करते हैं।। ६२॥ कर्मासक्त अज्ञलोगोंका बुद्धिभेद नहीं करना चाहिये, प्रत्युतन्तु ब्रह्मज्ञ पण्डित व्यक्तिको स्वयं सब कर्म्मोका अनुष्ठान करके अज्ञलोगोको कर्ममें नियुक्त करना चाहिये ॥ ७० ॥ सब कर्म प्रकृतिके गुणों द्वारा सर्वतोभावेन निष्पादित होते हैं किन्तु अहङ्कारसे विमूढचित्त व्यक्ति "मैं कर्ता हूं" ऐसा समझता है ॥ ७१ ॥ परन्तु हे देवतागण ! गुण और कर्मौके विभागके तत्त्वको जाननेवाला व्यक्ति "इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्त होती हैं" ऐसा समझकर कर्त्तृत्वाभिमान नहीं करता है ॥ ७२ ॥ प्रकृतिके सत्वादि त्रिगुणोसे मोहित होकर जो इन्द्रियों में और इन्द्रियोके कार्यों में आसक्त होते हैं. सर्वज्ञ व्यक्ति उन मन्दमति अज्ञलोगोंको विचलित न करे ॥ ७३ ॥