पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९८५

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६६४ वायुपुराणम् क्षत्रस्यैव समुच्छेदः संवन्धो वै द्विजैः स्मृतः । मन्वन्तराणां सप्तानां संतानाश्च सुताश्च ते परम्परा युगानां च ब्रह्मक्षत्रस्य चोद्भवः । यथा प्रवृत्तिस्तेषां वै प्रवृत्तानां तथा क्षयः सप्तर्षयो विदुस्तेषां दीर्घायुष्यास्तु ते (?) । एतेन कमयोगेण ऐलेक्ष्वाक्वन्वया द्विजाः उत्पद्यमानास्त्रेतायां क्षीयमाणे कलौ पुनः । अनुयान्ति युगाख्यां तु यावन्मन्तरक्षयः जामदग्न्येन रामेण क्षत्रे निरवशेषिते । कृते वंशकुलाः सर्वाः क्षत्रियैर्वसुधाधिपैः ॥ द्विवंशकरणाश्चैव कोर्तयिष्ये निबोधत ऐलस्येक्ष्वाकुनन्दस्य प्रकृतिः परिवर्तते । राजानः श्रेणिबद्धास्तु तथाऽन्ये क्षत्रिया नृपाः ऐलवशंस्य ये ख्यातास्तथैवैक्ष्वाकवा नृपाः । तेषामेकशतं पूर्ण कुलानामभिषे किणाम् तावदेव तु भोजानां विस्तरो द्विगुणः स्मृतः । भजते त्रिशकं क्षत्रं चतुर्धा तद्यथादिशम् तेष्वतोताः समाना ये ब्रुवतस्तावोधत | शतं वै प्रतिविन्ध्यानां शतं नागाः शतं हयाः घृत ( धार्त) राष्ट्राश्चैकशतमशोतिर्जनमेजयाः । शतं च ब्रह्मदत्तानां शोरिणां वोरिणां शतम् ॥४४५ ॥४४६ ॥४४७ ॥४४८ ॥४४६ ॥४५० ॥४५१ ॥४५२ ॥४५३ ॥४५४ करने के लिए राजाओं के साथ अवतीर्ण होते है क्षत्रिय वंश का मूलतः विध्वंस, ब्राह्मणों के साथ सम्बन्ध स्थापन, सातों मन्वन्तर, मन्वन्तरों में उत्पन्न होने वाली प्रजाएँ, युगों को परम्परा, ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को उत्पत्ति, उनके कुलों का उद्भव, उत्पत्ति के उपरान्त उनके विनाश एवं दीर्घायुप्राप्ति, प्रजाओं को प्रवृत्ति आदि समस्त वातों को सप्तपिंगण जानते ४४४४४६६। इस उपर्युक्त क्रम के अनुसार ऐल तथा इक्ष्वाकुवंशीय द्विजातियाँ नेता में उत्पन्न होकर कलियुग के विनाश पर्यन्त युग का अनुवर्तन तब तक करती रहती है, जब तक मन्वन्तर का क्षय नही उपस्थित होता । जमदग्नि पुत्र परशुराम के पृथ्वीपति राजाओं के साथ क्षत्रियों का समूल संहार कर डालने के बाद चन्द्र और सूर्य दोनों वंश के क्षत्रियों की पुनः उत्पत्ति हुई, में उन सब का वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये १४४७-४४६। उस महान् क्षत्रिय संहार के बाद इला और इक्ष्वाकु के वंशज क्षत्रियों की सन्तानों का पुनः विस्तार हुआ, धारावाहिक रूप में क्षत्रिय लोग पुनः राज्याधिकारी हुए, उनके साथ साथ अन्यान्य क्षत्रिय भी राजा हुए | ऐल और ऐक्ष्वाकु – ऐसे वंश थे, जिनमें पर विख्यात अभिषिक्त राजाओं के एक सौ कुल हुए । भोजवंशीय राजाओं के कुलों की संख्या उनको द्विगुणित कहीं जाती है, इस प्रकार ऐसे क्षत्रियों की संख्या तीन सौ हो जाती है (?) उनमें समान नाम वाले राजा व्यतीत हो चुके हैं, उन सब को बतला रहा हूँ, सुनिये ४५०-४५२३। ऐसे राजाओं में प्रतिविन्ध्यों को संख्या एक सौ, नागों की एक सौ, हृयों की एक सौ, धृतराष्ट्रों को एक सौ, जनमेजयों की अस्सी, ब्रह्मदत्तों को एक सौ, शोरी और कोरियों की