पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९४८

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`नवनवतितमोऽध्यायः पुनश्चैनासंलंकृत्य ऋषये प्रत्यपादयत् । तां स दीर्घतमा देवीमब्रवोद्यदि मां शुभे दघ्ना लवणमिश्रेण स्व (सु) व्यक्तं नग्नकं तथा । लिहिष्यस्यजुगुप्सन्ती आपादतलमस्तकम् ततस्त्वं प्राप्स्यसे देवि पुत्रांश्च मनसेप्सितान् | तस्य सा तद्वचो देवी सर्वं कृतवती तथा अपानं च समासाद्य जुगुप्सन्ती न्यवर्जयत् । ताप्मुनुवाच ततः सपिर्यंते परिहृतं शुभे ॥ विनाऽपानं कुमारं त्वं जनयिष्यसि पूर्वजम् ततस्तं दीर्घतमसं सा देवी प्रत्युवाच ह । नार्हसि त्वं महाभाग पुत्रं दातुं ममेदृशम् (ऋषिरुवाच ) तवापराधो देव्येष नान्यथा भविता नु वै । देवोदानों च ते पुत्रमहं दास्यामि सुव्रते तस्यापानं विना चैव योग्यासावो ( ? ) भविष्यति ।) तां स दीर्घतमाश्चैव कुक्षौ स्पृष्द्वेदमब्रवीत् प्राशितं दधि यत्तेऽद्य ममाङ्गाद्वै शुचिस्मिते | तेन ते पूरितो गर्भः पौर्णमास्यामिवोदधिः

J ६२७ ॥७६ 11669 ॥७८ ॥७६ ॥८० ॥८१ ॥८२ ॥ ८३ प्रकार उन्हें प्रसन्न किया । ऐश्वर्यशाली राजा बलि ने अपनी पत्नी सुदेष्णा को भी बड़ी भर्त्सना को । और पुनः अलंकारादि से विभूषित कर ऋषि के पास भेजा । दीर्घतमा ने सुदेष्णा से कहा, मङ्गले ! यदि नमक मिश्रित दही मेरे नग्न और खुले हुए समस्त शरीर में लगाकर पैर से लेकर मस्तकं तक बिना किसी घृणा या जुगुप्सा के अपनी जीभ से चाटोगी तब अपनी इच्छा के अनुसार पुत्रों को प्राप्त करोगी । देवी सुदेष्णा ने दीर्घतमा के इस आदेश का यद्यपि सर्वाशतः पालन किया १७५-७८ । पर उनके शरीर के मलमार्ग को चाटते उसे बड़ी घृणा हुई जिससे छोड़ दिया । ऐसा देखकर ऋषि दीर्घतमा ने सुदेष्णा से पुनः कहां, शुभे ! तुम अपने ज्येष्ठ कुमार को बिना अपान (मलमार्ग) के उत्पन्न करोगो । दीर्घतमा को ऐसी बातें सुनकर देवी ने पुनः प्रार्थना की, महाभाग ! ऐसे पुत्र देने कि कृपा आप न करें १७६-८०१ । 1 { ● ऋषि ने कहाः - देवि ! यह तो तुम्हारा ही अपराध है, अब यह अन्यथा नहीं हो सकता । सद्व्रतपरायणे ! देवि ऐसा ही है तो तुम्हारा पौत्र इस प्रकार का होगा । उसका अपानमार्ग के विना भी सब कार्य होता रहेगा । ऐसा कहने के उपरान्त का स्पर्श करते हुए पुनः कहा, देवि ! सुन्दर हँसनेवाली ! तू ने कर लिया है, उसके फलस्वरूप तुम्हारा गर्भ पूर्णिमा तिथि के ऋषिवर दीर्घतमा ने देवी सुदेष्णा की कुक्षि मेरे समस्त अंगों से दधि का जो प्राशन समुद्र की भांति पूर्णता को प्राप्त हो गया "एतच्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो ङ पुस्तके नास्ति ।