पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९४५

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वायुपुराणम् ॥४६ ॥५० ॥५२ ॥५३ दर्शार्थमाहृतान्दर्भाश्चचार सुरभीवृतः । जग्राह तं दीर्घतमा विस्फुरन्तं च शृङ्गयोः स तेन निगृहीतस्तु न चचाल पदात्पदम् । ततोऽब्रवीद्वृषस्तं वै मुञ्च मां बलिनां वर न मयाssसादितस्तात बलवांस्त्वद्विधः क्वचित् । त्र्यम्बकं वहता देवं यतो जातोऽऽस्मि (स) भूतले ॥५१ सुञ्च मां बलिनां श्रेष्ठ प्रीतस्तेऽहं वरं वृणु । एवमुक्तोऽब्रवीदेनं जीवंस्त्वं मे क्व यास्यसि तेन त्वाऽहं न मोक्ष्यामि परस्वादं चतुष्पदम् । ततस्तं दीर्घतमसं स वृषः प्रत्युवाच ह नास्माकं विद्यते तात पातकं स्तेयमेव वा । भक्ष्याभक्ष्यं न जानीमः पेयापेयं च सर्वशः कार्याकार्यं न वै वो गम्यागम्यं तथैव च । न पाप्मानो वयं विप्र धर्मो ह्येष गवां स्मृतः गवां नाम सबै श्रुत्वा संभ्रान्तस्त्वनुमुच्य तम् । भक्तया चाऽऽनुश्रविषया गोषु तं वै प्रसादयत् ॥५६ प्रसादिते गते तस्मिन्गोधर्मं भक्तितस्तु तम् । मनसैव तदादत्ते तन्निष्ठस्तत्परायणः ततो यवीयसः पत्नीमोतथ्यस्याभ्यमन्यत | विचेष्टमानां रुदतीं दैवात्संमूढचेतनः ॥५४ ॥५५ ॥५७ ॥५८ ६२४ किया था, उसी में निवास कर रहे थे, एक बार कहीं से घूमता हुआ एक वृषभ वहाँ पर आ गया, गोषों के साथ घूमते हुए उस वृषभ ने श्राद्ध के लिये लाये गये कुशों का भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया। ऋषिवर दोघंतमा ने फुड़कते हुए उस वृषभ की दोनों सींगों को वल पूर्वक पकड़ लिया १४७-४६। उनके पकड़े जाने पर जब वह एक पग से दूसरा पग भी नहीं रख सका तव असक्त होकर दीर्घतमा से बोला, बलवानों में श्रेष्ठ ! मुझे आप छोड़ दें, तात ! मैंने आप के समान वलवान् कहो पर किसी अन्य को नहीं पाया, यद्यपि समस्त पृथ्वी भर का मैंने देवदेव महादेव जी को वहन करते हुए भ्रमण किया है । बलशालियों में श्रेष्ठ ! मुझे छोड़ दीजिये मैं तुम्हारे ऊपर परम प्रसन्न हूँ, मुझसे वर माँगिये । वृषभ के ऐसा कहने पर दीर्घतमा ने कहा, वृषभ ! मेरे हाथ से तू जीते हुए कहाँ जाओगे | तुम चार पैरवाले होकर भी दूसरे को वस्तु का भक्षण करते हो, अतः मैं तुम्हें वही छोड़ गा | दीर्घतमा के ऐसा कहने पर वृषभ ने पुनः उत्तर दिया, तात ! मेरे लिये कोई पाप नहीं है चोरी भी कुछ नही है । मैं क्या खाना चाहिये, क्या नहीं खाना चाहिए, क्या पोना चाहिये, क्या नहीं पीना चाहिये- इसे नहीं जानता ५०-५४। उसी प्रकार मुझे इसका भी ज्ञान नहीं है कि मुझे क्या करना चाहिये और क्या नही करना चाहिये, कहाँ जाना चाहिये और कहीं न जाना चाहिये, ब्राह्मणदेव ! हम पशुओं को पाप नहीं लगता, गोओं का तो यही धर्म कहा गया है । वृषभ के इस कथन में दीर्घतमा गौ का नाम सुनकर अचकचा गये, उन्होंने परम भक्ति तथा विनयपूर्ण चाटुकारी के साथ वृषभ को प्रसन्न किया। इस प्रकार प्रसन्न होकर वृषभ के चले जाने पर उन्होंने भक्ति पूर्वक इस गौधर्म पर विचार किया, और मन से उसे ग्रहण कर सर्वदा उसी में निष्ठा रख कर पालन में भी तत्पर हो गये ।५५-५७॥ तदनन्तर देव की अकृपा से हतबुद्धि होकर उन्होंने अपने छोटे भाई औतथ्य की पत्नी को