पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९०१

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६५० वायुपुराणम् तां श्रुत्वा व्यथितो वाणों तदा कंसो वृथामतिः । निष्क्रम्य (ष्कृष्य ) खड्गं तां कन्यां हन्तुकामोऽभवत्तदा तमुवाच महाबाहुर्चसुदेवः प्रतापवान् | उग्रसेनात्मजं कंसं सौहृदात्प्रणयेन च न स्त्रियं क्षत्रियो जातु हन्तुमर्हति कश्चन | उपाय: परिदृष्टोऽत्र मया यादवनन्दन योऽस्याः संभवते गर्भ सप्तमः पृथिवीपते । तमहं ते प्रयच्छामि तत्र कुर्या यथाक्रमम् त्वं त्विदानों यथेष्टत्वं वर्तेथा भूरिदक्षिण | सर्वानस्यास्तु वै गर्भान्सत्यं नेष्यामि ते वशम् एवं मिथ्या नरश्रेष्ठ वागेषा न भविष्यति । एवमुक्तोऽनुनीतः स जग्राह तनयांस्तदा वसुदेवश्च तां भार्यामवाप्य मुदितोऽभवत् । कंसश्चास्यावधीत्पुत्रान्पापकर्मा वृथामतिः ऋषय ऊचुः क एष वसुदेवश्च देवकी च यशस्विनी | नन्दगोपस्तु कस्त्वेष यशोदा व महायशाः ॥ यो विष्णुं जनयामास या चैनं चाम्यवर्धयत् सूत उवाच पुरुषः कश्यपस्याऽऽसन्नादित्यास्तु स्त्रियस्तथा । अथ कामान्महाबाहुर्देवक्याः समवर्धयत् ॥२२३ ॥२२४ ॥२२५ ॥२२६ ॥२२७ ॥२२८ ॥२२६ ॥२३० हो, उसी के सातवें गर्भ से तुम्हारी मृत्यु होगी । २१७-२२१। इस दैवी वाणी को सुनकर कंस को वहुत ही खेद हुआ और उस मूर्ख ने तुरन्त म्यान से तलवार खींचकर देवकी को मारने की इच्छा प्रकट की। प्रताप- शाली महाबाहु वसुदेव ने ऐसी स्थिति देख उग्रसेन के पुत्र कंस से परम सौहार्द तथा प्रेम पूर्वक इस प्रकार निवेदन किया, पादवनन्दन ! क्षत्रिय कभी किसी स्त्री का संहार नहीं करते, इस कार्य के लिये में एक उआय देख रहा हूँ ! पृथ्वीपति कंस ! इस तुम्हारी वहिन देवकी के सातवें गर्भ से जो सन्तान उत्पन्न होगा, उसे मैं तुम्हें दे दूंगा, उस समय उसका चाहे जो करना | हे विपुल दान करनेवाले ! कंस ! तुम इस समय भी जो चाहे कर सकते हो। इसके सातवे गर्भ की बात क्या मैं इसके समस्त गर्भो को तुम्हें दे दूंगा — इसे सच सच समझो | हे नर श्रेष्ठ ! मेरी यह बात कदापि मिथ्या न होगी।" वसुदेव द्वारा इस प्रका अनुनय विनय पूर्वक कहे जाने पर कंस ने देवकी के समस्त पुत्रों को मारने की बात स्वीकार कर ली और देवकी को छोड़ दिया । वसुदेव अपनी पत्नी देवकी को जीतो प्राप्त कर परम प्रसन्न हुए । इसी कारण से पापात्मा मूर्ख कंस देवकों के समस्त पुत्रो का संहार करता था | २२२-२२८ । ऋषिवृन्द बोले- सूत जी ! ये वसुदेव और नन्द गोप कौन थे ? जिन्होंने भगवान् विष्णु को जन्म दिया ? यशस्विनी देवकी कौन थी ? और महान् यशस्विनी यशोदा कौन थी ? जिन्होंने भगवान् का पालन- पोषण किया- इसे हम लोग सुनना चाहते हैं । २२६ सून बोले - ऋषिवृन्द ! ये नन्दादि पुरुष कश्यप के और यशोदा आदि स्त्रियाँ आदिति को