पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८८२

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

षण्णवतितमोऽध्यायः ८६१ तं जनाः पर्यधावन्त सूर्योऽयं गच्छतीति ह । स तान्विस्मापयित्वाऽथ पुरीमन्तः पुरं तथा ॥२६ तं प्रसेनजिते दिव्यं मणिरत्नं स्यमन्तकम् । ददौ भ्रात्रे नरपतिः प्रेम्णा शकजिदुत्तमम् ॥३० + स्यमन्तको नाम मणिर्यस्य राष्ट्रे स्थितो भवेत् । कालवर्षी च पर्जन्यो न च व्याधिभयं तदा ॥३१ लिप्सां चके प्रसेनात्तु मणिरत्नं स्यमन्तकम् । गोविन्दो न च तं लेभे शक्तोऽपि न जहार च ॥३२ कदाचिन्मृगयां यातः प्रसेनस्तेन भूषितः । स्यमन्तककृते सिंहाद्वधं प्राप्तः सुदारुणम् जाम्बवानृक्षराजस्तु तं सिहं निजघान वै । आदाय च मणि दिव्यं स्वं बिलं प्रविवेश ह तत्कर्म कृष्णस्य ततो वृष्ण्यन्धकमहत्तराः । मणौ गृध्नुं तु मन्वानास्तमेव विशशङ्करे मिथ्याभिशस्ति तेभ्यस्तां बलवानरिसूदनः | अमृष्यमाणो भगवान्वनं स विचचार ह स तु प्रसेनो मृगयामचरतत्र चाप्यथ | प्रसेनस्य पदं गृह्य पुरुषराप्तकारिभिः ऋक्षवन्तं गिरिवरं विन्ध्यं च नगमुत्तमम् । अन्वेषणपरिश्रान्तः स ददर्श महामनाः ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ अपने पुर में प्रवेश किया। लोग यह समझकर उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे कि यह सूर्य जा रहे हैं। इस प्रकार नगर निवासियों को तथा अन्तः पुर को उस मणिद्वारा विस्मय विमुग्ध कर राजा शक्रजित ने दिव्य मणि को अपने भाई प्रसेनजित को प्रेमपूर्वक प्रदान कर दिया |२७-३०। उस स्यमन्तक मणि के विषय में यह प्रसिद्धि है कि वह जिस राष्ट्र में रहता है, वहीं मेघ समय समय पर वृष्टि करते हैं, और वहाँ व्याधियों का भय नहीं रहता । गोविन्द के मन में उस स्यमन्तक मणि को प्रसेनजित से ले लेने को इच्छा हुई, किन्तु सामथ्यं रखते हुए भी उन्होंने उसे प्रसेनजित से छोना नही । एक बार कभी उस सुन्दर मणि से विभूषित होकर प्रसेनजित शिकार के लिये वन को गये, वहाँ उसी स्यमन्तक के कारण एक सिंह ने उनको मार डाला | रीछराज जाम्बवान ने उस सिंह को मार डाला और स्यमन्तक को लेकर अपने दिल में प्रवेश किया। महान् वृष्णि, अन्धकों के वंशजों ने इस हत्या कर्म की शंका कृष्ण के ऊपर की, 'उसो मणि की लालच से कृष्ण ने ऐसा किया' इस प्रकार की आशंकाएँ सबों के मन में हुईं। शत्रुमर्दन बलवान् भगवान् कृष्ण इस मिथ्या अपवाद को उन लोगों द्वारा सुनकर सहन न कर सके और तुरन्त वन को प्रस्थित हुए |३१-३६ | प्रसेनजित जिस स्थान पर शिकार खेलने के लिये गये थे, उसी स्थान को प्रसेन के पदचिन्हों को जानकर लोगों से पता लगाकर अनुमरण करते हुए कृष्ण चले । और इस प्रकार ऋक्षवान् गिरिवर और पर्वतश्रेष्ठ विन्ध्याचल में घूमते-घूमते वे बहुत परेशान हो गये। वहीं पर महामनस्वी कृष्ण ने घोड़े समेत प्रसेन को मरा हुआ पाया पर मणि को - + एतदधंस्थान इमे अर्धे - 'स्यमन्तकर्माणि रत्नं घृष्यकं स्वं निवेशने' इति ख. पुस्तके | 'स्यमन्तकर्माणि रानं दृश्य कस्त निवेशने' इति घ. पुस्तके |