पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८७४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

पश्चनवतितमोऽध्यायः सूत उवाच आदित्यो विप्ररूपेण कार्तवीर्यमुपस्थितः । तृप्तिकामः प्रयच्छान्नमादित्योऽहं न संशयः रजोवाच भगवन्केन ते तुष्टिर्भवेद्ब्रूहि दिवाकर | कीदृशं भोजनं दद्मि श्रुत्वा च विदधाम्यहम् सूर्य उवाच स्थावरं देहि मे सर्वमाहारं ददतां वर । तेन तृप्तो भवेयं वै न तुष्येऽन्येन पार्थिव रजोवाच न शक्यं स्थावरं सर्वं तेजसा मानुषेण तु । निर्दग्धुं तपतां श्रेष्ठ त्वामेव प्रणमाम्यहम् आदित्य उवाच तुष्टस्तेऽहं शरान्दद्मि अक्षयान्सर्वतः सुखान् । प्रक्षिप्ताः प्रज्वलिष्यन्ति मम तेजः समन्विताः भादिष्टं तेजसा मेघसागरं शोषयिष्यति । शुष्कं भस्म करिष्यामि तेन प्रोतो नराधिप ८५३ 22 ॥४ ॥५ ॥६ ॥७ ॥८ सृत बोले – ऋषिवृन्द ! आदित्य ब्राह्मणवेश धारण कर महाराज कार्तवीर्य के पास आये और बोले राजन् ! मैं भूखा हूं, सन्तोष प्राप्ति के लिए आपके पास आया हूँ, मुझे अन्नादि दीजिये, मैं आदित्य हूँ इसमें सग्देह न करिये | ३ | राजा बोले- भगवन् दिवाकर ! आपको किस से सन्तोप-प्राप्ति होगी, मैं किस प्रकार का भोजन आपको दूं ? आपका उत्तर सुनकर ही में कुछ प्रबन्ध कर सकूँगा |४| सूर्य बोले- दानिशिरोमणि राजन् ! मुझे समस्त स्थावर जगत् प्रदान कीजिये, मैं उसी का भोजन कर सन्तोष प्राप्त करूंगा, अन्य भोजन द्वारा मेरी तृप्ति नहीं होगी ॥५॥ राजा बोले-हे तेजस्वियों में श्रेष्ठ ! मैं मानवतेज द्वारा समस्त स्थावर जगत् को जलाने में सर्वथा असमर्थ हूं, अतः आपही को प्रमाण करता हूँ |६| - आदित्य वोले- राजन् ! मैं तुम्हारे ऊपर सन्तुष्ट हूँ, मैं तुम्हें ऐसे वाण दे रहा हूँ, जिनका कभी नाश नही होगा जो तुम्हें सब प्रकार के सुख देनेवाले होंगे | मेरे तेज से समन्वित होकर ये वाण, फेंके जाने पर प्रज्वलित हो उठेंगे । हे नराधिप ! मेरे तेज से सम्वलित होने पर वे आदेश दे देने पर मेघ और समुद्र को भी