पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८५२

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द्विनवतितमोऽध्यायः 'दानवा ऊचुः अस्माकमिन्द्रः प्रह्लादस्तस्यार्थे विजयामहे । अस्मिस्तु समये राजंस्तिष्ठेया देवनोदिते स तयेति ब्रुवन्नेव देवैरप्यभिचोदितः । भविष्यसीन्द्रो जित्वेति देवैरपि निमन्त्रितः जधान दानवान्सर्वान्समक्षं वज्रपाणिनः । स विप्रनष्टां देवानां परमश्रीः श्रियं वशी निहत्य दानवान्सर्वानाजहार रजिः प्रभुः । तं तथा तु रजि तत्र देवैः सह शतक्रतुः रजिपुत्रोऽहमित्युक्त्वा पुनरेवाब्रवीद्वचः | इन्द्रोऽसि राजन्देवानां सर्वेषां नात्र संशयः ॥ यस्याहमिन्द्र पुत्रस्ते ख्याति यास्यामि शत्रुहन् स तु शक्कवचः श्रुत्वा वश्चितस्तेन मायया । तथेत्येवाब्रवीद्राजा प्रीयमाणः शतक्रतुम् तस्मस्तु देवसदृशे दिवं प्राप्ते महोपतौ । दायाद्यमिन्द्रादाजह, रुराचारं तनया रजेः तानि पुत्रशतान्यस्य तच्च स्थानं शचीपतेः | समक्रामन्त बहुधा स्वर्गलोकं त्रिविष्टपम् ततः काले बहुतिथे समतीते महाबलः । हतराज्योऽब्रवीच्छको हतभागो बृहस्पतिम् ८३१ ॥८३ ॥८४ ॥८५ ॥८६ ॥८७ ||८८ ॥८६ 1180 ॥६१ दानवों ने कहा -- हम लोगों के इन्द्र प्रह्लाद हैं, उन्ही के लिये विजय को आकांक्षा हम सबों को है, पर हे राजन् ! देवता द्वारा प्रेरित इस प्रतिज्ञा में हम सभी सहमत हैं ।' दानवों को यह बात सुनकर महाराज रजि स्वीकारोक्ति दे ही रहे थे कि देवतागण भी बोल उठे । उन लोगो ने भी यह निमंत्रण दिया कि आप दानवों को पराजित कर हम सब के इन्द्र हो सकते है 1८३-८४ | देवताओं के इस निमंत्रण को स्वीकार कर रजि ने वज्रपाणि देवराज इन्द्र के देखते-देखते सभी दानवों का संहार कर डाला इस प्रकार उस जितेन्द्रिय परम प्रभावशाली महाराज रजि ने देवताओं को विनष्ट राजलक्ष्मी का समस्त दानवों का संहार कर उद्धार किया । उस युद्ध में विजय प्राप्त करनेवाले महाराज रजि से देवताओं समेत शतक्रतु इन्द्र बोले, हे महाराज ! मैं आपका पुत्र हूँ | पुनः इन्द्र ने कहा, राजन् ! आप समस्त देवताओं के इन्द्र है, इसमें सन्देह नही । हे शत्रुविनाशक ! मैं इन्द्र आप के पुत्र के रूप में विख्यात हूँगा 1८५-८७। शत्र की ऐसी बाते सुनकर और उसकी माया ठगे जाकर महराज रजि ने प्रसन्न होकर कहा कि अच्छी बात है । उस देवतुल्य महाराज रजि के स्वगंगामी हो जाने पर उनके पुत्रों ने इन्द्र से उनका सम्पूर्ण उत्तराधिकार छीन लिया । इस प्रकार इन्द्र के स्थान पर महाराज रजि के सौ पुत्रों ने अपना अधिकार जमा लिया, और अनेक प्रकार से एक ही साथ सारे स्वर्गं लोक को आक्रान्त कर लिया 1८८-६० बहुत दिवस बीत जाने पर महाबलशाली हतभाग्य इन्द्र, राज्य छीन लिये जाने पर बृहस्पति के समीप गये और बोले, ब्रह्मर्षि ! आप बेर के फल जितना बड़ा पुरोडाश ( चर) का