पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८५१

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८३० वायुपुराणम् इत्येते काश (श्य) पाः प्रोक्ता रजेरपि निबोधत | रजेः पुत्रशतान्यासन्पश्च वीर्यवतो भुवि || राजेयमिति विख्यातं क्षत्रमिन्द्रभयावहम् तदा दैवासुरे युद्धे समुत्पन्ने सुदारुणे | देवाश्चैवासुराश्चैव पितामहमथाब्रुवन् आवयोर्भगवन्युद्धे विजेता को भविष्यति । ब्रूहि नः सर्वलोकेश श्रोतुमिच्छामहे वयम् ब्रह्मोवाच येषामर्थाय सङ्ग्रामे रजिरात्तायुधः प्रभुः । योत्स्यते ते विजेष्यन्ति त्रील्लाँकान्नात्र संशयः रजिर्यतस्ततो लक्ष्मीर्यतो लक्ष्मीस्ततो धृतिः । यतो धृतिस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः तद्देवा दानवाः सर्वे ततः श्रुत्वा रजेर्जयम् | अभ्ययुर्जयमिच्छन्तः स्तुवन्तो राजसत्तमम् ते हृष्टमनसः सर्वे राजानं देवदानवाः । ऊचुरस्मज्ज्जयाय त्वं गृहाण वरकार्मुकम् रजिरुवाच अहं जेष्यामि वा युद्धे देवाञ्शकपुरोगमान् | इन्द्रो भवामि धर्मात्मा ततो योत्स्यामि संयुगे ॥७५ ।।७६ ॥७७ ॥७८ ॥७६ 1150 ॥८१ ॥८२ परम बलवान् विख्यात थे । वे राजेय नाम से विरुपात थे, इन्द्र भी उनके क्षात्रवल से भय खाते थे |७२-७५। उस समय देवताओं और राक्षसो में परम दारुण युद्ध मचा हुआ था, देवता और असुर दोनो दलवालों ने पितामह ब्रह्मा से पूछा, भगवन् ! हम दोनों के वर्गों के इस घमासान युद्ध मे कौन वर्ग विजयी होगा समस्त लोकों के स्वामिन् ! इस बात को हम लोग जानना चाहते है, बतलाइये १७६-७७ ब्रह्मा ने कहा – जिन लोगों के लिए महान् पराक्रमशाली महाराज रजि संग्राम भूमि में हथियार धारण करेंगे, वे लोग तीनों लोकों को जीत सकेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। जहाँ पर महाराज रजि हैं, वही लक्ष्मी है, जहाँ पर लक्ष्मी का निवास है, वहीं पर वास्तविक धैर्य और शान्ति है, जहाँ घंर्यं का निवास है, वही पर धर्म रहता है, और जहाँ पर धर्मं रहता है, वहीं वास्तविक विजय है ।' देवताओं और दानवों ने रजि द्वारा जय की बातें सुनकर अपने-अपने पक्ष की विजय आकांक्षा से राजाधिराज रजि की प्रार्थना की । अत्यन्त प्रसन्न मन से देवताओ और दानवो ने राजा रजि के पास जाकर यह निवेदन किया कि 'तुम हमारी विजय के लिए सुदृढ़ धनुप धारण करो |७८-८१ | रजि बोले- हम तुम सब को युद्ध में पराजित कर देंगे, इन्द्र प्रभृति प्रमुख देवगणों को भी हम पराजित कर देंगे, किन्तु हमीं धर्मात्मा इन्द्र होगे, इसी शर्त पर हम युद्ध में धनुष धारण करेंगे |८२॥