पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७८९

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७६८ वायुपुराणम् ॥२३ कृशाश्वः सहदेवस्य पुत्रः परमाधर्मिकः । कृशाश्वस्य महातेजाः सोमदत्तः प्रतापवान् सोमदत्तस्य राजर्षेः सुतोऽमुज्जनमेजयः । जनमेजयात्मजश्चैव प्रमतिर्नाम विश्रुतः तृणबिन्दुप्रसादेन सर्वे वैशालका नृपाः । दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तः सुधार्मिकः शर्यातमिथुनं त्वासीदानर्तो नाम विश्रुतः । पुत्रः सुकन्या कन्या च भार्या या च्यवनस्य तु आनर्तस्य तु दायादो रेवो नाम्ना तु वीर्यवान् । आनर्तो विषयो यस्य पुरी चापि कुशस्थली रेवस्थ रैवतः पुत्रः ककुद्मो नाम धार्मिकः । ज्येष्ठो भ्रातृशतस्याऽऽसीद्राजा प्राप्य कुशस्थलीम् ॥२५ कन्यया सह श्रुत्वा च गान्धर्वं ब्रह्मणोऽन्तिके | मुहूर्तं देवदेवस्य मात्यं बहुयुगं विभोः आजगाम युवा चैव स्वां पुरीं यादवैर्वृ ताम् । कृतां द्वारवतीं नाम बहुद्वारां मनोरमाम् भोजवृष्ण्यन्धकैर्गुप्ता वसुदेवपुरोगमैः । तां कथां रैवतः श्रुत्वा 'यथातत्त्वर्मारदम: * ॥२४ ॥२६ ॥२७ ॥२८ + कन्यां तु बलदेवाय सुव्रतां नाम रेवतीम् | दत्त्वा जगाम शिखरं मेरोस्तपसि संस्थितः ॥२६ ॥२० ॥२१. ॥२२ पुत्र कृक्षादव हुए, जो परम धार्मिक राजा थे । कृशाश्व के पुत्र परम प्रतापी महान् तेजस्वी राजा सोमदत्त हुए । राजर्षि सोमदत्त के पुत्र जनमेजय हुए। राजा जनमेजय के पुत्र प्रमति नाम से विख्यात हुए |१६-२१। राजा तृणविन्दु की कृपा से ये सभी विशाला पुरी के नूपतिगण दीर्घायुवाले परम पराक्रमी, परम धार्मिक एवं महात्मा हुए। राजा शर्याति को दो सन्ततियाँ हुईं । पुत्र का नाम आनतं और कन्या का नाम सुकन्या था, सुकन्या च्यवन की स्त्री हुई । राजा आनतं का उत्तराधिकारी परम पराक्रमी रेव नामक राजा हुआ, आनर्त का समस्त राज्य और कुत्रस्थली पुरी पर उसका आधिपत्य था | २२-२४१ रेव का पुत्र परम धार्मिक रेवत हुआ, जो ककुद्मी नाम से भी विख्यात हुआ । ककुद्यो अपने अन्य सौ भाइयों में सब से ज्येष्ठ थे, इन्होंने भी कुशस्थली पुरी मे रज्य किया। एक बार अपनी कन्या के साथ यह ब्रह्मा के समीप संगीत गुनने के लिए गये थे, वहाँ देवाधिदेव ब्रह्मा के केवल एक मुहूर्त (दो घड़ी) भर इन्होंने अवस्थान किया था, किन्तु ब्रह्मा की वह दो घड़ी मानव वर्षमान से अनेक युगों की थी । वहाँ से राजा युवावस्था में ही अपनी पुरी को जब वापस लोटे तो उनकी वह पुरी यदुवंशियों से अधिकृत थी, उसके चारों ओर अनेक सुन्दर द्वार बने थे और अब वह कुशस्थली नाम से नहीं प्रत्युत द्वारवती नाम से प्रसिद्ध थी | २५-२७॥ वसुदेव प्रभृति प्रमुख भोज, वृष्णि एवं अन्धक वंशो के लोग उसकी रक्षा कर रहे थे । शत्रुओं को वश मे करने वाले रैवत ने इस घटना को जानकर अपनी साध्वी व्रतपरायण कन्या रेवती को बलदेव को समर्पित कर दिया, और स्वयं मेरु के शिखर पर जाकर

  • अत्रैवाध्यायसमाप्तिः ख. घ. पुस्तकयोः । + कम्यां तु बलदेवाय इत्यारभ्य सप्ताशीतितमाध्यायस्य-

सप्तसत्वस्वरं तु य इत्यन्तग्रन्थः खं. घ. पुस्तकयोर्नास्ति ।