पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७८१

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७६० वायुपुराणम् निर्दग्धुकामं रोषेण सान्त्वयामास वै शनैः । तवातितेजसा युक्तमिदं रूपं न शोभते असहन्ती तु तत्संज्ञा वने चरति शाड्वले । द्रक्ष्यते तां भवानद्य स्वां भार्या शुभचारिणीम् श्लाघ्यां यौवनसंपन्नां योगमास्थाय गोपते । अनुकूलं भवेदेवं यदि स्यात्समयो मतः रूपं निवर्तयेऽयं ते आद्यं श्रेष्ठमरिंदम । रूपं विवस्वतस्त्वासी त्तिर्यगूर्ध्व मधस्तथा तेनासौ व्रीडितो देवो रूपेण तु दिवस्पतिः । तस्मात्त्वष्टा स चक्रं तु बहु मेने महातपाः अनुज्ञातस्ततस्त्वष्टा रूपनिर्वर्तनाय तु । ततोऽभ्युपगमात्त्वष्टा मार्तण्डस्य विवस्वतः भ्रमिमारोप्य तत्तेजः शातयामास तस्य वै । तत्तु निर्भासितं तेजस्तेजसाऽपहृतेन तु कान्तात्कान्ततरं द्रष्टुमशुभं शुशुभे ततः । ददर्श योगमास्थाय स्वां भार्या वडवां तथा अदृश्यां सर्वभूतानां तेजसा नियमेन च । अश्वरूपेण मार्तण्डस्तां मुखे समभावयत् मैथुनाय विचेष्टन्ती परपुंसोपशङ्कया | सा तन्निरधमच्छुक्रं नासिकाम्यां विवस्वतः ॥६७ ॥६८ ॥६ ॥७० ।।७१ ॥७२ ।।७३ ॥७४ ॥७५ ॥७६ उसी क्रोधावेश में विश्वकर्मा के पास पहुँचे । विश्वकर्मा ने सूर्य का समुचित सत्कार एवं पूजन किया और क्रोध से भस्म करने को उद्यत भास्कर को धीरे-धीरे सान्त्वना देते हुए प्रकृतिस्थ किया । तब कहा, परम तेजोमय होने के कारण तुम्हारा यह रूप शोभा नहीं देता, इस प्रकार स्वरूप को सहन करने में अपने को असमर्थ पाकर संज्ञा अव हरे भरे घास के मैदान में चर रही है । अपनी उस शुभमार्गगामिनी, स्वरूपवती, यौवनशालिनी, प्रशंसनीय गुणवाली पत्नी को आप आज देखेगे, शतं यही है कि आप हमारी सम्मति अंगीकार करो और जैसा हम कहें वैसा करें | हे शत्रुओं को वश में करने वाले ! तुम्हारे इस श्रेष्ठ तेजोमय पूर्वरूप को हम परिवर्तित करना चाहते है |६६-६६३। उस समय सूर्य का तेजोमय स्वरूप तिरछा, ऊँचा और नीचा था, अर्थात् उनकी किरणे तिरछे, ऊँचे, नोचे सर्वत्र प्रखर तेजोमयी थी । अपने उक्त रूप की चर्चा से दिनकर देव लज्जित हुए। अपने जिस प्रसिद्ध चक्र से सूर्य के रूप परिवर्तन को चर्चा महातपस्वो विश्वकर्मा ने की थी, उस चक्र को बहुत सम्मान से देखा । सूर्य से रूप परिवर्तन की आज्ञा प्राप्तकर विश्वकर्मा मार्तण्ड के सम्मुख सचक्र उपस्थित हुए और अपने उस चक्र (ज्ञान) पर रखकर उनके तेज को खराद दिया | चक्र द्वारा तेज को प्रखरता के खराद देने पर सूर्य का शेष तेज परम सुशोभित हुआ । और देखने में पहिले जो अच्छा नहीं लगता था वही सुन्दर से भी सुन्दरतर दिखाई पड़ने लगा । तदनन्तर सूर्य ने योगवल द्वारा वडवारूपधारिणी अपनी स्त्री को देखा १७०-७४। उस समय वह अपने तेज एवं नियमों के कारण सभी जीवों से अदृश्य थी | उसे देख मार्तण्ड ने अश्व का रूप धारण किया और मुख की ओर से काम-भावना प्रकट की। काम-चेष्टा करने पर संज्ञा ने पराये पुरुष की शंका से तूयं के वीर्य को अपनी नासिका के दोनो छिद्रो द्वारा बाहर गिरा दिया। उस बाहर गिराये हुए सूर्य के वीर्य