पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७७३

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वायुपुराणम् बृहस्पतिरुवाच इत्येतदङ्गिराः प्राह ऋषीणां शृण्वतां तदा | पृष्टस्तु संशयं सर्वं पितॄणां प्राह संसदि सत्रे वै वितते पूर्वं तदा वर्षसहस्रिके | यस्मिन्गृहपतिर्घासीद्ब्रह्मा वै देवता प्रभुः संवत्सरशतान्पञ्च तत्रोपेता इति श्रुतिः । श्लोकाश्चात्र पुरा गोता ऋपिभिर्ब्रह्मवादिभिः दीक्षितस्य तदा सत्रे ब्रह्मणः परमात्मनः । तत्रैव जातमत्युग्रं पितॄणामक्षयार्थिनाम् ॥ लोकानां च हितार्थाय ब्रह्मणा परमेष्ठिना ७५२ सूत उवाच एवं बृहस्पतिः पूर्व पृष्टः पुत्रेण धीमता | प्रोवाच पितृवंशं तु यत्तद्वै समुदाहृतम् ॥ अत ऊर्ध्य प्रवक्ष्यामि वरुणस्य निर्वाोधत इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पे नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः ||१३|| ॥१२५ ॥१२६ ॥१२७ ॥१२८ ॥१२६ बृहस्पति ने कहा - प्राचीन काल मे ऋषियो द्वारा पूछे जाने पर महर्षि अंगिरा ने पितरों के विषय में समस्त संणयात्मक वातों को चर्चा एक सभा में की थी । ऐसा सुना जाता है कि पूर्व समय में एक सहस्र वर्ष तक चलनेवाला महायज्ञ सम्पन्न हुआ था, जिसमें गृहपति होकर भगवान् ब्रह्मा पाँच सौ वर्षों तक देवताओं पर प्रभुत्व स्थापित किये रहे । ब्रह्मवेत्ता गण इस विषय में कुछ श्लोक गाते हैं ( जिसका आशय निम्न प्रकार है) उस महान् यज्ञ में परमात्मा परमेष्ठी भगवान् ब्रह्मा के दीक्षित होने पर उन्ही से समस्त लोकों के कल्याणार्थ, अक्षय लाभ के प्रार्थी पितरों का उत्तम जन्म वहीं पर सम्पन्न हुआ |१२५-१२८॥ सूत बोले- अपने बुद्धिमान् पुत्र से पूछने पर इस प्रकार पूर्व काल में वृहस्पति ने पितों के वंश का जो वर्णन किया था, वही मैंने आप लोगो को बतलाया । अब इसके उपरान्त में वरुण के वंश का वर्णन कर रहा हूँ | मुनिये १२६ श्री वायुमहापुराण मे श्राद्धकल्पनामक तिरासीयां अध्याय समाप्त ॥५३॥