पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७७०

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व्यशीतितमोऽध्यायः ॥६८ 11EE विकारपारः प्रकृतेश्च पारगस्त्रयोगुणानां त्रिगुणान्तपारगः । तत्त्वं चतुर्विंशतियोगपारगः स पारगो यस्त्वयनान्तपारगः कृत्स्नं यथा तत्त्वविसर्गमात्मनस्तथैव सूयः प्रलयं सदाऽऽत्मनः । प्रत्याहरेद्योगबलेन योगवित्स सर्वपारक्कमयानगोचरः वेदस्य वेदिता यो नँ वेद्यं विन्दति योगवित् । तं वै वेदविदं प्राहुस्तं प्राहुर्वेदपारगम् वेद्यं च वेदितव्यं च विदित्वा वै यथाविधि | एवं वेदविदं प्राहुस्ततोऽन्ये वेदचिन्तकाः यज्ञान्वेदांस्तथा कामाज्ञानानि विविधानि च । प्राप्नोत्यायुः प्रजाश्चैव पितृभक्तो धनानि च ॥१०१ श्राद्धं यः श्राद्धकल्पं वै यस्त्विमं नियतं पठेत् । सर्वाण्येतान्यवाप्नोति तीर्थे दानफलानि च ॥१०२ स पङ्क्तिपाननश्चैव द्विजानामग्रभुग्भवेत् | अध्याप्य वा द्विजान्सर्वान्सर्वान्कामानवाप्नुमात् ॥१०३ यश्चैव शृणुयान्नित्यमानन्त्यं स्वर्गमश्नुते । अनसूयो जितकोधो लोभमोहविवर्जितः ॥१०० ॥१०४ ७४६ 11819 हैं । ९६ । समस्त विकारों के पार जाने वाले प्रकृति के पारगामी, सत्त्व, रज, तम, तीनों गुणों के पारगामी वास्तव में तीनों गुणों के पारगामी है। जो योग मार्ग एवं चौवीस तत्वों के पारगामी है, वे हो वास्तव में इस जन्म मरण रूप संसृति सम्बन्ध के पारगामी है । जिस प्रकार योगी निखिल योग तत्त्वो को अपने योग वल द्वारा विसर्जित करता है, उसी प्रकार सर्वदा अपना विनाश भी संघटित करता है, इस प्रकार योग के तत्वों को भली-भाँति जानने वाला योगी, सब से परे जिसकी गति है, ऐसे परम पुरुष के गोचर होता है, अर्थात् योगी योग का आश्रय लेकर शरीर त्याग करते है और आत्मसारूण्य प्राप्त करते है | योग • तत्त्वो को जानने वाला जो पुरुष वेदों का सम्यक् अध्ययन कर पैदों के वेद्य (जानने योग्य ) उस परम पुरुष को प्राप्त करता है, उसे ही वास्तव में वेदो का तत्त्ववेत्ता और वेदों का पारगामी कहा जाता है ।९७-९९ । जो वेदों के चरम प्रतिपाद्य उस परम पुरुष को भली-भांति जानता है, वही वास्तव में वेदों के तत्त्वों को जानने वाला है, दूसरे सब वेद चिन्तक हैं |2001 पितरों में भक्ति रखने वाला समस्त यज्ञों, समस्त वेदों, समस्त मनोरथों, विविध ज्ञान-विज्ञान, दीर्घायु, प्रचुर सम्पत्ति एवं पुत्र पौत्रादिकों सब को प्राप्त करता है । श्राद्ध के अवसर पर जो मनुष्य इस श्राद्धकल्प का सावधान चित्त होकर पाठ करता है, वह पूर्व कथित समस्त फलों को तथा तीर्थ मे दिये गये दानो के फलो को प्राप्त करता है ।१०१ - १०२। वह पवित्रात्मा पुरुष पंक्तिपावन तथा ब्राह्मण समाज में सर्वप्रथम भोजन करने वाला होता है । अथवा समस्त ब्राह्मण समाज को विद्याहीन करके अपने समस्त मनोग्थ को प्राप्त करता है |१०३। जो मनुष्य इस श्राद्ध के माहात्म्य को नित्य श्रद्धाभाव से, क्रोध को वश में रख, लोभ आदि से रहित होकर श्रवण करता है वह अनन्त काल पर्यन्त स्वर्ग भोगता है | समस्त तीर्थों एवं दानो के फलों को वह प्राप्त करता है, यह मोक्ष का सब्र से श्रेष्ठ उपाय है स्वर्ग प्राप्ति