पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७५२

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अशीतितमोऽध्यायः भोजनेऽग्रयासनं दद्यादतिथिभ्यः कृताञ्जलिः | सर्वयज्ञक्रियाणां स फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् क्षिप्रमत्युष्णमक्लिष्टं दद्याच्चानं बुभुक्षते । व्यञ्जनं च तथा स्निग्धं भक्त्या सत्कृत्य यत्नतः तरुणादित्यसंकाशं विमानं हंसवाहनम् | अन्नदो लभते तिस्रः कन्याकोटीस्तथैव च अन्नदानात्परं दानं विद्यते नेह किंचन | अन्नाद्भूतानि जायन्ते जीवन्ति च न संशयः जीवदानात्परं दानं न किचिदिह विद्यते । अन्तैर्जीवन्ति त्रैलोक्यमन्नस्यैव हि तत्फलम् अन्ने लोकाः प्रतिष्ठन्ति लोकदानस्य तत्फलम् | अन्नं प्रजापतिः साक्षात्तेन सर्वमिदं ततम् ॥ तस्मादन्नसमं दानं न भूतं न भविष्यति यानि रत्नानि मेदिन्यां वाहनानि स्त्रियस्तथा । क्षिप्रं प्राप्नोति तत्सर्व पितृभक्तो हि मानवः प्रतिश्रयं सदा दद्यादतिथिभ्यः कृताञ्जलिः | देवास्ते संप्रतीक्षन्ते दिव्यातिथ्यैः सहस्रशः सर्वाण्येतानि यो दद्यात्पृथिव्यामेकराङ्भवेत् । त्रिभिद्वन्यामथैकेन दानेन तु सुखो भनेत ७३१ ॥५२, ॥५३. ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ ॥५६ ॥६० गैड़े की सीग को पितरगण घृणा दृष्टि से देखते हैं। हाथ जोड़कर अतिथियों को भोजन कराते समय आगे बासन देना चाहिये, जो ऐसा करता है वह सभी यज्ञों एवं सत्क्रियाओं का फल प्राप्त करता है।५०-५२। जो भूखा अतिथि हो, उसे अति शीघ्रता पूर्वक खूब पकी हुई गरमागरम भोजन सामग्री देनी चाहिये । यत्नपूर्वक भक्ति . एवं सरकार के साथ उसे चिकना स्निग्न भोजन देना चाहिये । जो ऐसा करता है, उसे मध्याह्न के सूर्य के समान तेजस्वी हंसी के वाहनों से समन्वित विमान की प्राप्ति होती है। श्राद्ध के अवसर पर अन्न दान करनेवाला तीन करोड़ सुन्दरी कन्याओं को प्राप्त करता है |५३ ५४१ इस मर्त्यलोक में अन्नदान से बढ़कर कोई अन्यदान नही है । इसमें किसी की सन्देह न होगा कि अन्न से ही समस्त जीव पृथ्वी पर उत्पन्न होते है और जीवन चलाते हैं । उसी प्रकार इस मर्त्यलोक में जीव दान के समान कोई अन्य दान नहीं हैं | अन्नो द्वारा यह त्रैलोक्य जीवित है, यह सारा विश्वप्रपंच अन्न का ही परिणाम है । अन्न में ही समस्त लोकों की स्थिति और प्रतिष्ठा है, अन्न दान से ही वे वर्तमान है, अन्न हो साक्षात् प्रजापति है उसी से यह सारा त्रैलोक्य व्याप्त है । इस कारण मन्न दान के समान कोई अन्य दान न तो जगत् में था और न भविष्यकाल में कभी होगा १५५-५७॥ इस पृथ्वी में जितने भी वाहन है, जितनी भी सुन्दर स्त्रियाँ हैं, उन सब को पितरों में भक्त रखनेवाला मनुष्य शीघ्र ही प्राप्त करता है इसलिये उसे सर्वदा हाथ जोड़कर अतिथियों को आश्रय देना चाहिये । सहस्रों देवगण दिव्य (मनोरम) भातिथ्य प्राप्त के लिये प्रतीक्षा करते रहते हैं । जो व्यक्ति ऊपर कही गई समस्त वस्तुओं को श्राद्ध में दान करता है वह पृथ्वी का एकच्छत्र सम्राट् होता है, अथवा इनमें से तीन, दो या एक हो का दान करता है वह भी सुखी होता है १५५-६०। ये दान परमेधर्म हैं,