पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३८

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£ नवसप्ततितमोऽध्याय! अपूजिता दहन्त्येते दधुः कामांश्च पूजिताः । सर्वस्वेनापि तस्माद्वै पूजयेदतिथीन्सदा वानप्रस्थो गृहस्थश्च गृहमभ्यागतोऽथवा | बालाः खिन्ना यतिश्चैव जानीयादतिथीन्सदा अभ्यागतो याचकः स्यादतिथि: स्यादयाचकः | अतिथेरतिथिः श्रेष्ठः सोऽतिथिर्योग उच्यते न घोरो नापि संकीर्णो नाविद्यो न विशेषवित् । न च संतामसमृद्धो न सेवी नाचरोऽतिथि: पिपासिताय श्रान्ताय भ्रान्तायातिबुभुक्षते । तस्मै सत्कृत्य दातव्यं यज्ञस्य फलमिच्छता आरुह्य भृगुतुङ्गे तु गत्वा पुण्यां सरस्वतीम् | आपनां तु मदीं पुण्यां गङ्गां देवीं महानदीम् हिमवत्प्रभवा नद्यो याश्चान्या ऋषिपूजिताः ।+ सरस्तीर्थाभिसंवेद्या नदी नववहास्तथा गत्वतान्मुच्यते पापैः स्वर्गे नित्यं महीयते | दशरात्रमशौचं तु प्रोक्तं वै मृतसूल के ब्राह्मणस्य विशेषेण क्षत्रिये द्वादशं स्मृतम् | अर्धमासं तु वैश्यस्य मासाच्छूद्रस्तु शुध्यति उदक्या सर्ववर्णानां त्रिरात्रेण तु शुध्यति । उदयां सूतिकां चैव श्वानमन्त्यावसायिनम् ७१७ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ।।२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ करते हैं |१४|ये अतिथि लोग श्राद्धादि में अपूजित होकर जला देते हैं और पूजित होकर सभी मनोरथों को पूर्ण करते हैं । अतः सर्घदा द्वार पर समागत इन अतिथियों की सर्वस्त्र लगाकर भी पूजा करनी चाहिये |१५| वानप्रस्थ में रहनेवाले गृहस्थाश्रम में रहनेवाले अपने घर पर आनेवाले चालकगण, लोक से उदास रहनेवाले विरागोगण, एवं यति इन सबको सर्वदा अतिथि जानना चाहिये | १६ | जो किसी वस्तु को याचना करने के लिए अपने द्वार पर आता है वह अभ्यागत है, जो विना किसी प्रयोजन के आता है वही अतिथि है, अतिथि का अतिथि श्रेष्ठ अतिथि है, वह योगी के समान परम पुण्यदायी कहा जाता है |१७| घोर हृदयवाला न हो, संकीर्ण विचारोंवाला न हो, विद्या विहीन न हो, विशेष जाननेवाला न हो, अधिक संततियों से समन्वित न हो, सेवक न हो, जड़ हो, वही सच्चा अतिथि है |१८| यज्ञ के फल की अभिलाषा करनेवाले को चाहिये कि पिपासाकुलित, थके हुए, भूले भटके और भूखे अतिथि को सत्कार पूर्वक भोजनादि दें |१९| भृगुतुंग पर अरोहण कर पुण्यसलिला सरस्वती की यात्राकर, परम पुण्यमयी देवनदी गंगा, तथा महानदी की यात्रा कर, एवं अन्यान्य हिमालय से निकलने वाली नदियाँ, जिनकी पूजा ऋषि लोग भी किया करते है, तथा अन्य जितने सरोवर, तीर्थ एवं पुण्यप्रद नदियाँ है, उन सब की यात्रा कर मनुष्य अपने पाप कर्मों से छुटकारा पाते हैं और सर्वदा स्वर्गलोक में पूजित होते हैं | २० २१॥ किसी की मृत्यु हो जाने पर विशेषतया ब्राह्मण को दस रात का अशोच लगता है । क्षत्रिय को बारह रात का कहा जाता है, वैश्य पन्द्रह दिनों तक तथा शुद्र एक मास तक शुद्ध होता है । सभी जातिवालों की ऋतुमती स्त्रियाँ तीन रात में शुद्ध + नास्तीदमधं घ. पुस्तके |