पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३७

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७१६ वायुपुराणम् यस्मिन्दोषाः प्रपश्यैरन्सद्भिर्वा वजितस्तु यः | जानीयाद्वापि संवासाद्वअंयेतं प्रयत्नतः अविज्ञातं द्विजं श्राद्धे परीक्षेत सदा बुधः | सिंद्धा हि विप्ररूपेण चरन्ति पृथिवीमिमाम् तस्मादतिथिमायान्सम भिगच्छेत्कृताञ्जलिः) | पूजयेच्चापि पाद्येन पादाभ्यञ्जनभोजनः उर्वी सागरपर्यन्तां देवा योगेश्वरास्तथा । नानारूपैश्चरन्त्येते प्रजा धर्मेण पालयन् अर्चयित्वा ततो दद्याद्विप्रायातिथये नरः । व्यञ्जनानि च भक्ष्याणि फलं तेषां तथैव च अग्निष्टोमं तु पयसा प्राप्नुयाद्वै तथा श्रुतम् । सर्पिषा तु शुभं चक्षुः षोडशाहफलं लभेत् ॥ मधुना त्वतिरात्रस्य फलं च समवाप्नुयात् ॥१२ तत्प्राप्नुयाच्छ्रधानो नरो वै सर्वे: कामैर्भोजयेद्यस्तु विप्रान् । सर्वार्थदा सर्वनिप्रातिथेयः फलं भुङ्क्ते सर्वमेधस्य नित्यम् यस्तु श्राद्धेऽतिथि प्राप्य दैवे वाऽव्यवमन्यते । तं वै देवा निरस्थंति होता यद्वत्परां नसुम् (?) ॥१३ देवाश्च पितरश्चैव बह्निश्चैव हि तद्विान् | आविश्य भुञ्जते तद्वै लोकानुग्रहकारणात् ॥१४ ॥६ ॥७ 118 ॥१० ॥११ जिसे अपने समाज से बहिष्कृत रखते है, अथवा संसर्ग से जिसके लिए यह मालूम पड़े कि वह कुसंगी है, ऐसे लोगों को प्रयत्नपूर्वक वर्जित रखना चाहिये |६| बुद्धिमान् पुरुष बिना जाने सुने ब्राह्मण की श्राद्धकर्म में सर्वदा परीक्षा कर ले । सिद्ध लोग ब्राह्मवेश धारणकर इस पृथ्वी पर विचरण किया करते है, इसलिए द्वार पर अतिथिरूप में आने पर हाथ जोड़कर अगवानी करनी चाहिये। फिर पैर धोने के लिए जल आदि समर्पित कर विधिधत् भोजनादि द्वारा उसकी पूजा करनी चाहिये |७-८ | योगपरायण देवगण समुद्रपर्यन्त फैली हुई इस विशाल पृथ्वी पर विविधवेश धारणकर धर्मपूर्वक प्रजाओ का पालन करते हुए विचरण करते रहते है । विधिवत् पूजा कर लेने के उपरान्त बुद्धिमान् पुरुप अतिथिरूप मे आये हुए ब्राह्मण के भोजन के लिए विविध व्यञ्जन एवं फल समर्पित करे |६-१०1 ऐसा सुना जाता है कि केवल जल (दूध ) देने से अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त होता है । घृत देने से सुन्दर नेत्र मिलते हैं, और सोलह दिन में सम्पन्न होनेवाले यज्ञ का फल मिलता है । मधु के देने से अतिरात्र यज्ञ का फल प्राप्त होता है |११| जो श्रद्धानु व्यक्ति अपने सभी प्राप्त साधनों द्वारा भक्तिपूर्वक अतिथिपूर्वक में समागत ब्राह्मणों को भोजन कराता है वह सर्वदा समस्त यज्ञों के फल का उपभोग करता है, क्योकि अतिथिरूप मे आये हुए विप्रों का अतिथि सत्कार सभी मनोरथों को देनेवाला है |१२| जो व्यक्ति श्राद्धकर्म में अथवा किसी देवकार्य मे आये हुए अतिथि की अवहेलना करता है, उसे देवगण इस प्रकार छोड़ देते हैं, (वंचित रखते हैं) जैसे हवन करनेवाला परावसु ( नीचे गिरी हुई आहुति ? ) को ११३ | लोक के ऊपर अनुग्रह करने के तात्पर्य से देवगण, पितरगण और अग्नि देव इन ब्राह्मणों में आविष्ट होकर श्राद्धादि मे भोजन