पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३३

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वायुपुराणम् ७१२.. सर्वेषां मृण्मयानां तु पुनर्दाह-उदाहृतः । मणिवज्रप्रवालानां मुक्ताशङ्खमणेस्तथा सिद्धार्थकानां कल्केन तिलकल्केन वा पुनः । स्याच्छौचं सर्ववालानामाविकानां च सर्वशः आविकानां च सर्वेषां मृद्भिरविधीयते । आद्यन्तयोस्तु शौचानामद्भिः प्रक्षालनं पुनः तथा कार्पासिकानां च भस्मना समुदाहृतम् । फलपुष्पशलाकानां प्लावनं चाद्भिरिष्यते, संमार्जनं प्रोक्षणं च भूमेश्चैवोपलोपनम् । निष्क्रम्य बाह्यतो ग्रामाद्वायुपूता वसुंधरा धनुष्मत्पक्षिणां चैव मृद्भिः शौचं विधीयते । एवमेष समुद्दिष्टः शौचानां विधिरुत्तमः | अतः परं प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु

प्रातगृ हात्पश्चिमदक्षिणेन इषुक्षेपं चाक्षमात्रं पदं च । कुर्यात्पुरीषं च शिरोऽवगुण्ठय न च स्पृशेत्तत्र शिरः करेण शुष्कैस्तृणैर्वा काठैर्वा पत्रैर्वेणुदलेन वा । मृण्मयैर्भाजनैर्वाऽपि तिरोधाय वसुंधराम् उद्धृतोदकमादाय मृत्तिकां चैव वाग्यतः । दिवा उदङ्मुखः कुर्याद्रात्रौ वै दक्षिणामुखः ॥५३ ॥५४ ॥५५ .।।५६ ॥५७ ॥५८ ॥५६ ॥६० ॥६१ बने हुए पदार्थों को पुन: जला लेना कहा गया है । इसी प्रकार सभी प्रकार के मणि, हीरे प्रवाल, मुक्ता, शंख आदि के लिये पीली सरसों अथवा काले तिल का कल्क बनाकर शुद्धि करनी चाहिये । केशों की भी शुद्धि इसी प्रकार करनी चाहिये १५३-५४० भेंड़ के बाल को अथवा सभी प्रकार के भेड़ों के वालो के शुद्धि मिट्टी और जल से हो जाती है, पवित्र करने के पहिले और अन्त मे दोनो बार पुन: जल, द्वारा घो लेना चाहिये । कपास के बने हुने पदार्थों की शुद्धि भस्म द्वारा कही गई है । फल पुष्प एवं शलाका की शुद्धि जल में डुबोने से हो जाती है ९५५-५६ पृथ्वी की शुद्धि प्रथम वटोरकर, जन से सिचितकर. फिर लीपने से हो जाती है । ग्राम से बाहर निकलने पर पृथ्वी वायु द्वारा शुद्ध रहती है । अर्थात् वस्ती की पृथ्वी के लिए बटोरने, जल छिड़कने और लीपने की आवश्यकता है, ग्राम से बाहर की पृथ्वी वायु से हो पवित्र रहती है । धनुर्धारी और पक्षियो की शुद्धि मिट्टी से की जाती है, शुद्धि के लिये यह उत्तम क्रम कहा गया है । इसके उपरान्त शौच की कुछ अन्य विधियाँ वतला रहा हूँ, सुनो १५७ ५८ प्रातः काल अपने घर से पश्चिम या दक्षिण दिशा की ओर एक बाण की जहाँ तक गति हो उतनी दूर पर या अक्षमात्र दूर स्थान पर मल त्याग - करना चाहिये । उस समय शिर को वस्त्रादि से ढँक लेना चाहिये, हाथ से शिर का स्पर्श नही करना चाहिये ।५६। सूखे हुये तृण से, काष्ठ से, पत्तों से, बाँस के पत्तों से, अथवा मिट्टी के बरतन से उस समय पृथ्वी को ढँक देना चाहिये |६०॥ पुनः चुप रहकर मिट्टी और ऊपर उठाये गये जल से शुद्धि करनी चाहिये । दिन में उत्तर मुख और रात्रि मे दक्षिणमुख होकर मलत्याग करना चाहिये |६१ | दाहिने हाथ से ·