पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३२

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अष्टसप्ततितमोऽध्यायः सिद्धार्थ कैः कृष्णतिलैः कार्य वाऽप्यवकीरणम् | गुरुसूर्याग्निवस्तूनां दर्शनं वाऽपि यत्नतः आसनारूढमानेषु पादोपहतमेव च । अमेध्यैर्जङ्ग मैदृष्टं शुष्कं पर्युषितं च यत् अशितं परिदुष्टं च तथैवाग्रावलेहितम् । शर्कराकेशपाषाणैः कोटैर्यच्चाप्युपद्रुतम् पिण्याकयथितं चैव तथा तिलयवादिषु । सिद्धाक्षताश्च ये भक्ष्याः प्रत्यक्षलवणीकृताः वाससा चावधूतानि वर्ज्यानि श्राद्धकर्मणि । सन्ति वेदविरोधेन केचिद्विज्ञानमानिनः अयज्ञपतयो नाम ते श्राद्धस्य यथा रजः | दधि शाकं तथाऽभक्ष्याः शुक्लं चौषं विवर्जितम् वार्ताकं वर्जयेद्दद्यात्सर्वानभिषवानपि । सैन्धवं लवणं यच्च तथा मानससंभवम् पवित्रं परमं ह्येतत्प्रत्यक्षमपि वर्तते । अग्नौ निक्षिप्य गृह्णीयाद्धस्तौ प्रक्षिप्य यत्नतः गमयेन्मस्तकं चैव ब्रह्मतीर्थं हि तत्स्मृतम् | द्रव्याणां प्रोक्षणं कार्यं तथैवाऽऽवपनं पुनः निधाय चाद्भिः सिञ्चेत तथैवाप्सु निवेशनम् | अरिष्टतुमुले बिल्वं त्विगुदश्वदनान्यपि विदलानां च सर्वेषां चर्मवच्छौचमिष्यते । तथा दन्तास्थिदारूणां शृणां चावलेखनम् ७११ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥ ५१ ॥५२ छींटना) करना चाहिये । यत्नपूर्वक गुरु सूर्य और अग्नि की वस्तुओं का दर्शन करना चाहिये |४२ | आसनासीन (?), पैरों द्वारा मदित किये गये, अपवित्र प्राणियों द्वारा देखे गये, शुष्क एवं बासी, उच्छिष्ट, दोषपूर्ण, जीभ से चाटी हुई, शक्कर, (बालुका ) केश और पत्थर से दूषित, कीड़ों से गन्दी की गयी वस्तुयें श्राद्धकर्म में वर्जित हैं ।४३-४४॥ तिल और जव में, तिलों के चूरे न मिले हों, बनाये गये जो अक्षत खाने के लिये रखे गये हों तथा जिसमें नमक का अश मिला हुआ हो, इसी प्रकार वस्त्र से जो स्पर्श किया गया हो, वे सब अन्नादि पदार्थ द्धकर्म में दूषित माने अनधिकारी हैं, और श्राद्ध चाहिये । इसी प्रकार दही, न गये हैं। कुछ विज्ञान के मानने वाले वेदों का विरोध करते हैं, वे यज्ञ के के धूल की तरह ( विनाशक) हैं, उन्हें भी श्राद्धकर्म में वर्जित रखना खाये जानेवाले शाक, तथा श्वेत वर्ण का चोष्य (चूसा जानेवाला) पदार्थ- ये सब भी श्राद्धकर्म में वर्जित हैं ।४५-४७३ भौटे को भी श्राद्ध में वर्जित रखे। सभी प्रकार के अभिषवों को ( मद्य अथवा आसव ) देना चाहिये (?) जो समुद्र से निकला हुआ लवण है, तथा मानस से उत्पन्न हुआ लवण है, वह परम पवित्र माना गया है, ये दोनों लवण होने पर भी निषिद्ध नही हैं। उन्हें आग में छोड़कर पुन: दोनों हाथों से यत्नपूर्वक निकाल ले और अपने मस्तक पर लगा ले, मस्तक ब्रह्मतीर्थं कहा जाता है। समस्त श्राद्धीय द्वव्यों को सर्वप्रथम जल से सिचित करना चाहिये पुनः उनके ऊपर लगी हुई मैल आदि को छुड़ा देना चाहिये । ४८-५०१ फिर रखकर जल से पुनः सिंचन करना चाहिये, पुनः जल में छोड़ देना चाहिये । अरिष्ट, तुमुल विल्व, इंगुद, श्वदन, और विदल इन सभी वस्तुओं का श्राद्धादि में चर्म को तरह विधिवत् शुद्धि करनी चाहिये । इसी प्रकार दाँत, अस्थि, (हड्डी) काष्ठ एवं शृंग (सीग) आदि को विधिवत् स्वच्छ और पवित्र कर लेना चाहिये |५१-५२। सभी प्रकार के मृतिका के --