पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७२९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

वायुपुराणम् श्राद्धकर्मणि वर्ज्यानि कारणं चात्र वक्ष्यते । पुरा दे (दे) वासरे युद्धे निजितस्य बलेः सुरैः व्रणेभ्यो विस्फुरन्तो वै पतिता रक्तविन्दवः । तत एतानि वर्ज्यानि श्राद्धकर्मणि नित्यशः] अथ वेदोक्तनिर्यासाल्लंवणान्यूषणानि च । श्राद्धकर्माणि वर्ज्यानि याश्च नार्यो रजस्वला: दुर्गन्धं फेनिलं चैव तथा वै पत्वलोदकम् । न लभेद्यत्र गौस्तृप्ति नक्तं यच्चैव गृह्यते आविकं मार्गमौष्ट्रं च सर्वमेकशफं च यत् । माहिपं चामरं चैव पयो वर्ज्य विजानता अतः परं प्रवक्ष्यामि वर्ज्यान्देशान्प्रयत्नतः । न द्रष्टव्यं च यैः श्राद्धं शौचाशौचं च कृत्स्नशः वन्यमूलफलाहारैः श्राद्धं कुर्यात्तु श्रद्धया | राष्ट्रमिष्टमवाप्नोति स्वर्ग मोक्षं यशस्करम् अनिष्टशब्दसंकीर्णं जन्तुच्याप्तमथापि वा । पूतिगन्धां तथा भूमि श्राद्धकर्मणि वर्जयेत् नद्यः सागरपर्यन्ता द्वारं दक्षिणपूर्वतः | त्रिशङ्कं वर्जयेद्देशं सर्वं द्वादशयोजनम् उत्तरेण महानद्या दक्षिणेन च कैकटात् । देशस्त्रैशङ्कवो नाम वर्जितः श्राद्धकर्मणि कारस्कराः कलिङ्गाश्च सिन्धोरुत्तरमेव च । प्रनष्टश्रमधर्माश्च वर्ज्या देशाः प्रयत्नतः ७०८ ● • ॥१३ ।। १४ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ हूँ । प्राचीनकाल में देवताओं और और राक्षसों के युद्ध में देवताओं द्वारा पराजित बलि के शरीर में जो घाव थे, उनसे रक्त के विन्दु निकलकर पृथ्वी पर गिरे, वे ही इन वस्तुओं के रूप में हुये, अतः श्राद्धकर्म में इनको सर्वदा वजित रखना चाहिये ।१२-१४ | वेद में गिनाये गये समस्त निर्यास ( मोंद) द्रव्य, लवण, एवं ऊपण (पिप्पली मूल, चीता) ये वस्तुएँ भी श्राद्धकर्म मे वर्जित रखी जायँ । इसी प्रकार जो रजस्वला स्त्रियाँ हों, वे भी श्राद्धकमं में प्रवृत्त न हो । दुर्गन्धि युक्त, फेनो से व्याप्त, छोटे गड्ढों का जिसमें मौओ की तृप्ति नहीं होती, जो रात मे ग्रहण किया गया हो, भेड़, मृग, वकरी, ऊँट एवं अन्य एक खुरवाले पशुओ से पीकर दूषित किया गया, महिप, चमर आदि अन्य पशुओं द्वारा गंदला किया गया जल, श्राद्धकर्म मे विद्वान् पुरुष वर्जित रखे । ६-१७॥ अव इसके उपरान्त उन स्थानों को वतलाने को चेष्टा करूंगा, जिन्हें भरसक श्राद्धकर्म मे वर्जित रखना चाहिये । इसके अतिरिक्त उन लोगों को भी बतला रहा हूँ, जिन्हे श्राद्ध कर्म देखना भी नही चाहिये । इस प्रकार सभी प्रकार की पवित्रता एवं अपवित्रता के बारे में बतला रहा हूँ । श्रद्धा पूर्वक वन में उत्पन्न होनेवाले मूल एवं फलों के आहारो से श्राद्धकर्म सम्पन्न करने चाहिये | ऐसे करनेवाले को राष्ट्र मित्र को भाँति सम्मान देता है और यश की वृद्धि होती है, स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।१८-१६। अनिष्टकारी शब्दो से एवं जीव जन्तुओ से व्याप्त, दुर्गन्धि युक्त भूमि को श्राद्धकर्म में वर्णित रखना चाहिये । सागर तक जानेवाली समस्त नदियाँ, दक्षिण पूर्व के द्वार एवं त्रिशङ्कु देश इनको वारह योजन से छोड़ देना चाहिये । यह त्रिशंकु देश महानदो के उत्तर, कैकट देश से दक्षिण फैला हुआ है, यह श्राद्धकर्म में वर्जित है ।२०-२२। कारस्कर, कलिङ्ग सिन्धु के उत्तरवर्ती देश, एवं वे देश जहाँ पर चर्णाश्रम धर्म नष्ट हो चुका है, प्रयत्न पूर्दक श्राद्ध मे वर्जित