पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७२६

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सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥१२५ ॥१२६ ॥१२७ ॥१२८ ॥१२६ तीर्थान्यनुसरन्धीरः श्रद्दधानो जितेन्द्रियः । कृतपापश्च शुध्येत किं पुनः शुभकर्मकृत् तिर्यग्योन न. गच्छेच्च कुदेशे न च जायते । स्वर्गी भवति वै विप्रो मोक्षोपायं च विन्दति . अश्रद्दधानाः पाप्मानो नास्तिकाः स्थितसंशयाः | हेतुद्रष्टा च पञ्चैते न तीर्थफलमश्रुते गुरुतीर्थे परा सिद्धिस्तीर्थानां परमं पदम् । ध्यानं तीर्थपरं तस्माद्ब्रह्मतीर्थं सनातनम् उपवासात्परं ध्यानमिन्द्रियाणां निवर्तनम् । उपवासनिवद्धा हि प्राणैरिह पुनः पुनः प्राणापानौ समौ कृत्वा विषयाणीन्द्रियाणि च | बुद्धि मनसि संयम्य सर्वेषां तु निवर्तनम् प्रत्याहारं पुनविद्धि मोक्षोपायमसंशयम् । इन्द्रियाणां मनो घोरं बुद्धयादीनां प्रवर्तनम् अनाहारात्क्षयं याति विद्यादनशनं तपः । निग्रहाद्बुद्धिमनसो रम्या बुद्धिस्तु जायते क्षीणेषु सर्वपापेषु क्षीणेष्वेवेन्द्रियेषु च । परिनिर्वाति शुद्धात्मा यथा वह्निनिरिन्धनः कारणेभ्यो गुणेभ्योऽथ व्यक्ताव्यक्तस्य कृत्स्नशः | वियोजयति क्षेत्रज्ञं तेभ्यो योगेन योगवित् ॥१३४ ॥१३० १३१ · ॥१३२ ॥१३३ ७०५ पूर्वक इन्द्रियों को स्ववश रख यदि करे * शुद्ध हो जाता है, शुभ कर्म करने वालों के लिये तो कुछ कहना ही ही नही है । इन तीर्थों की यात्रा करने वाला पाप करने वाला भी विप्र तिर्यक् योनि में कभी जन्म नहीं लेता और न बुरे स्थानों में ही उसका जन्म होता है, प्रत्युत वह स्वर्ग प्राप्त करता है, मोक्ष के उपाय उसे सुलभ हो जाते है|१२५-१ ६॥ श्रद्धा न करने वाले, पापात्मा, परलोक न माननेवाले अथवा वेदों के निन्दक, स्थिति में सन्देह रखने वाले संशय़ात्मा, एवं सभी पुण्य कार्यो में किसी कारण का अन्वेषण करनेवाले कुतर्की - इन पाँचों को इन पवित्र तीर्थो का फल नही प्राप्त होता | रूपी तीर्थ में परम सिद्धि प्राप्त होती है, वह सभी तीर्थो से श्रेष्ठ है। उससे भी श्रेष्ठ तीर्थ ध्यान है, यह ध्यान साक्षात् ब्रह्म तीर्थ है, इसका कभी विनाश नही होता ।१२७-१२८। उपवास से भी यह ध्यान श्रेष्ठ है, यह सभी इन्द्रियों को उनके विषयों से निवृत्त करनेवाला है, उपवास से बँधे रहनेवाले व्यक्तिगण प्राणों से विमुक्त होकर इस लोक में पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं |१२६| प्राण एवं अपान वायु- इन दोनों को समान करके इन्द्रियों, उनके विपयो और बुद्धि को मन में बाँधने पर सब को निवृत्ति हो जाती है । मोक्ष के साधन भूत प्रत्याहार (इन्द्रियों को उनके विपयो से अलग रखना) को पुनः सुनिये । समस्त इन्द्रियों में मन परम चञ्चल और घोर है, बुद्धिं आदि सबको यही परिचालित करता है ।१३०-१३१। निराहार रहने से मन की चञ्चलता और कठोरता नष्ट हो जाती है, अतः अनशन को परम तप जानता चाहिये । से चंचल बुद्धि और मन इन दोनो को वश में रखने से सुन्दर बुद्धि उत्पन्न होती है। समस्त पापकर्मो के क्षीण हो जाने पर एवं इन्द्रियों के क्षीण हो जाने पर ( वश में आ जाने पर ) आत्मा शुद्ध होकर इन्धन रहित अग्नि की तरह निर्वाण प्राप्त करती है। समस्त व्यक्त अव्यक्त वस्तुओं के कारण एवं गुणों से योगीजन फा० दर्द