पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७०५

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"गर्वायुपुराणम्य

शूद्रा! श्राद्धे क्षोस्वाथ (?) त्वजस्तरवस्तथा ॥ धारणाच लवाश्चय लर्ववर्षीच नियं एवमादीन्यथान्यानि तृणनि परिवर्जयेत् अजनाभ्यञ्जनानाम्यामानुप्रैलेयेन (?) तथा एकाशः पुनर्भव' कार्य सर्वमेव फेलं भवेत् काशाः पुनर्भवा ये च बर्हणा उपमहणाः'अयं ते पितरो देवा देवाश्च पितरःपुनः पुष्पगन्धादिधूपानामेष मन्त्र] उदाहती । "आहृत्य दक्षिणायां तु होमायें विप्र यत्नतः अस्वर्ग्यं लौकिकं वाऽपि जुहुयत्किर्मसिद्धये । अन्तराधाय समिधं तथा होमो विधीयते ॥ समाहितेन मनसा प्रयताग्निः प्रयत्न C अग्नये कव्यवहाय स्वर्धा अङ्गिरसे नमः सोमाय व पितृमेते स्वधा अङ्गिरसे नमः ॥ र्यमाय चैवाङ्गिरसे स्व॒धा नम इति ध्रुवन् ॥५६ इत्येते वे होनेमन्त्री मन्त्राणामनुपूर्वशः । दक्षिणतोऽग्नयें नित्यं सोमायान्तरतस्तथा ॥ एतयोरन्तरं नित्यं जुया विवस्वते । उपाचार स्वधाकार तथैवल्लेखनं यंत् होमजप्ये नमस्कारः प्रोक्षणं च विशेषतः । अञ्जनाभ्यञ्जने चैव पिण्डसंवपनं तथा ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ ॥५६ FIL fon # FF FF) The 15 ER HEEFER MITT 15FPS & BIR 7 वारण, लव, लववर्ष, = ये तथा अन्यान्य तृणों को श्राद्धकर्म मे वर्जितः रखना चाहियेः॥४६-५११-अञ्जताअभ्यः 'जेन॑, गर्ध्वमानुप्रलयन (?) ये सब भी वर्जित है । पुनः उत्पन्न हुये काशों से सभी कार्यों को सम्पन्न करना चाहिये 'इसम सभी 'फलों की प्राप्ति होती है | १२| जोः पुतःउत्पन्न होने वाले काश तृण-है वे तथा-वर्हण और डिपवर्हणम्य भी उसी प्रकार श्राद्धकर्म में उपयोगी है। अथ ते पितरो- देवा देवाश्च पितरः पुतः' अर्थात् पितरगश 'देवस्वरूप हैं, "और दैवर्गण ही पितरस्वरूप है। यह पुष्प सुगंधित द्रव्य, धूपादि के दान के समय का कहा गया है। हवन के लिये रखी गई सामग्री को दक्षिणदिशा में खींचकर यत्नपूर्वक अस्वयं-अथव्वा-लौकिक विधियो से कर्मसिद्धि के लिये हवन करे । समिध को भीतर रखकर, हवन करना चाहिये। अग्नि की उपासना करनेवाला 'यजमान प्रयत्नपूर्वक "समाहित चित्त हो मनोयोग पूर्वक हवन करे ॥५३-५५१ अग्नये कव्यवाहायतस्व॒धा 'अगिरसे नमः सोमाय व पितृमते-स्वषां अङ्गिरसेः नमः। यमाय : चैत्राङ्गिरसे स्वधानसमर्थात् 'पितरों के उद्देण्यास' ही जानेवाली वस्तुओं को उन तक वाहन करनेवाले कव्यवाहअङ्गिरा को नमस्कार है, 'स्वधा है, पितृमनि सोम अङ्गिरों को नमस्कार है, स्वधा है, यम अङ्गिरा को नमस्कार है स्वधा है। ये हवन 'करने के मन्त्र है। इन मन्त्रों के कम से नित्य दक्षिण दिशा से अग्निं तदनन्तर सोम के इन दिनों के सध्य भाग्य मे विवस्वान् ( यम) के उद्देश्य से हवन करे | ५६-५७३। उपचार, स्वधाकार, उल्लेखन, हवन, जप, नमस्कार, प्रोक्षण, अञ्जनःअभ्यक्जन, पिण्डजिर्वपन, ये असव कार्य-कलाप मन्त्रोच्चारण पूर्वक करने पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्रदान करनेवाले स्मरण किये गये हैं। जैसी विधि के साथ श्राद्धक्रियाएँ बताई गयी हैं, ★