पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७०१

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६८० वायुपुराणम् गन्धपुष्पाणि धूपांश्च दद्यादाज्याहुतीच वै । फलसूलनमस्कारैः पितॄणां प्रयतः शुचिः श्राद्धकाले तु सततं वायुभूताः पितामहाः | आचिन्ति द्विजान्दृष्ट्वा तस्मादेतद्र्ववीमि ते वस्त्रैरन्नैः प्रदानैस्तैर्भक्ष्यपेयैस्तथैव च । गोभिरश्वैस्तथा ग्रामैः पूजयित्वा द्विजोत्तमान् भवन्ति पितरः प्रोताः पूजितेषु द्विजातिषु | तस्मादन्नेन विधिवत्पूजयेद्विजसत्तमान् सव्योत्तराभ्यां पाणिभ्यां कुर्यादुल्लेखनं द्विजः । मोक्षणं च तथा फुर्याच्छ्राद्ध कर्मण्यतन्द्रितः दर्भान्त्रिण्डांस्तथा भक्ष्यान्पुष्पाणि विविधानि च । गन्धदानमलंकारमेकैकं निर्वपेद्बुधः पोषयित्दा जनं सम्यग्वैश्वः स्यादुत्तरो द्विजः । अभ्यङ्गदर्भपिञ्जलैस्त्रिभिः कुर्याद्यथाविधि अपसव्यं पितृभ्यश्च दद्यादन्त्रमनुत्तमम् । तानुच्चार्याथ सर्वेषां वस्त्रार्थं सूत्रमेव च खण्डनं पेषणं चैव तथैत्रोल्लेखनं तथा । सकृदेव हि देवानां पितॄणां त्रिभिरुच्यते एकं पवित्रं हस्तेन पितृन्तर्वान्सकृत्सकृत् । चैलमन्त्रेण पिण्डेभ्यो दत्त्वा दर्शनजं हितम् सदा सपिस्तिलैर्युक्तांस्त्रीम्पिण्डान्निर्वपेद्भुवि । जानुं कृत्वा तथा सव्यं भूमौ पितृपरायणः ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ।।२० ॥२१ ॥२२ मे स्वर्ग में शोभा पाता है वहां पर अप्सराओं से घिरा हुमा, विमान पर अवस्थित हो आनन्द का अनुभव करता है । जितेन्द्रिय एवं पवित्र हो पितरो को गन्ध, पुष्प धूप, घृत, आहुति, फल. मूल एवं नमस्कार अर्पित करना चाहिये, पितरों को प्रथमतः तृप्त करके उसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार अन्न सम्पत्ति से से ब्राह्मणों को पूजा करनी चाहिये । सर्वदा श्राद्ध के अवसर पर पितामहगण (पितृगण ) वायुरूप धारण कर उनको देखकर, उन्ही मे आविष्ट हो जाते है -- इसीलिये में ततपश्चात् उनके भोजन कराने की बात कह रहा हूँ | वस्त्र, अन्न, विशेपदान, भव्य, पेय, गो, अश्व तथा ग्रामादि का दान देफर उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये । द्विजों के सत्कृत होने पर पितरगण प्रसन्न होते हैं । अतः अन्न द्वारा ब्राह्मणों की विधिवत् पूजा करनी चाहिये ।११-१५॥ विद्वान् ब्राह्मण सर्वप्रथम श्राद्धकर्म में विना आलस्य के वायें और दाहिने हाथो से उल्लेख करे और उसी प्रकार प्रोक्षण ( सिचन ) करे । तदुपरान्त कुश, पिण्ड, विविध प्रकार के भक्ष्य, पुष्प, गन्धदान, अलंकार आदि वस्तुओ मे से एक-एक का निर्वपन करे । श्राद्धकर्म मे ब्राह्मण को चाहिये कि भली तरह उपस्थित ब्राह्मणो को सन्तुष्ट करके वैश्वदेव कर्म के उपरान्त अभ्यङ्ग (तैलमदन ) कुश, एवं पिञ्ञ्जल (?) इन तीनो मे विधिवत् क्रियाएँ सम्पन्न कर /१६-१८ फिर अपसव्य होकर पितरों के उद्देश्य से उत्तम अन्न दे, उन सबो का नामोच्चारण कर के वस्त्र के लिए सूत्रदान करे | १६ | देवताओं के लिए खण्डन, पेपण और उल्लेखन - इनका एक बार का विधान है, और पितरो के लिए तीन बार कहा गया है | २० | हाथ से एक पवित्र लेकर सभी पितरी को अलग-अलग से वस्त्रदान के मन्त्रद्वारा पिण्डो के ऊपर देकर दर्शन करने का कल्याण प्राप्त किया जाता है |२१| सभी श्राद्धका मे घृत, तिल-युक्त पिण्डो का निर्वपन भूमि पर करना