पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६९४

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त्रिसप्ततितमोऽध्यायः एवमेते महात्मानः श्राद्धे सत्कृत्य पूजिताः । सर्वान्कामान्प्रयच्छन्ति शतशोऽथ सहस्रशः हित्वा त्रैलोक्यसंसारं जरामृत्युभयं तथा । मोक्षं योगमयैश्वर्यं प्रयच्छन्ति पितामहाः मोक्षोपायमथैश्वर्य सूक्ष्मदेहाच देवताः । कृत्स्नं वैराग्यमानन्त्यं प्रयच्छन्ति पितामहाः ऐश्वर्यं विहितं योगमैश्वर्य वित्तमुत्तमम् । यौगैश्वर्यादृते मोक्षः कथंचिन्नोपपद्यते अपक्षस्यैव गमनं गमने पक्षिणो यथा । वरिष्ठः सर्वधर्माणां मोक्षधर्मः सनातनः विमानायां सहस्राणि युक्तान्यप्सरसां गणैः । सर्वकामप्रसिद्धानि प्रयच्छन्ति पितामहाः प्रज्ञा पुष्टिः स्मृतिसँधा राज्यमारोग्यसेव च । पितॄणां हि प्रसादेन प्राप्यते तुमहात्मनाम् मुक्ता वैदूर्यवासांसि वाजिनागायुतानि च । कोटिशश्चापि रत्नानि प्रयच्छन्ति पितामहाः हंसर्बोहणयुक्तानि मुक्तावैदूर्यवन्ति च । किङ्किणीजालनद्धानि सदापुष्पफलानि च ॥ प्रोत्या नित्यं प्रयच्छन्ति मनुष्याणां पितानहाः इति श्री महापुराणे वायुप्रोक्ते ओद्धातपादे श्राद्धकल्पो नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥७३॥ ६७३ फा० -- ८५ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६९ ॥७० ॥७१ ॥७२ ।।७३ सत्कारपूर्वक पूजित ये महात्मा पितर गण सैकड़ों सहस्रो की संख्या मे मनुष्य के समस्त मनोरथों को पूर्ण करते हैं | तीनों लोक, संसार, वृद्धावस्था एवं मृत्यु के भय को छोड़कर पितामह - गण मोक्ष, योग-प्राप्ति एवं प्रचुर ऐश्वर्य - इन सब को प्रदान करते हैं । सूक्ष्म शरीरधारी ये पितामहनामक देवगण ( पितरगण ) मोक्ष को प्राप्त करने योग्य ऐश्वर्य, समस्त जागतिक वस्तुओं से उत्पन्न होनेवालं अनन्त वैराग्य को प्रदान करते हैं | अनुष्ठित ( किया हुआ) योग ही ऐश्वर्य है, सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति भी ऐश्त्रय है। योग एवं ऐश्वर्य के विना मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार भी सम्भव नही | ६५-६८ जिस प्रकार विनाप से के आकाश में पक्षियों का उड़ना सम्भव नही है, उसी प्रकार योग एवं ऐश्वर्य के विना मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है। सभी धर्मों में मोक्ष का साधनभूत धर्म ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वदा विद्यमान रहने वाला है। ये पितामहगण अप्सराओं के समूहों से घिरे हुये ऐसे सहस्रों विमानों को प्रदान करते हैं, जो समस्त मनोरथों को पूर्ण करते हैं। महात्मागण, बुद्धि, पुष्टि, स्मरण शक्ति, मेघा ( धारणाशक्ति) राज्य, आरोग्य इन सब को पितरो के आशीर्वाद से प्राप्त करते है। पितामहगण मुक्ता, वैदूर्य, विविध वस्त्र सहस्रों अश्व, नाग, करोड़ों रत्न. आदि भी प्रदान करते हैं। ये पितामह (पितर) गण हंम और वहियो से युक्त, मुक्ता और वैदूर्य से समन्वित, किंकिणी के जालों से गुथे हुये सर्वदा पुष्प और फलो से संयुक्त, ( रथ को ) प्रसन्न होकर नित्य प्रदान करते है ।६९-७३। श्रीवायुमहापुराण मे उपोद्घात में श्राद्धकल्पनामक तिहत्तरवाँ अध्याय समाप्त ॥७३॥