पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६८४

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द्विसप्ततितमोऽध्यायः असितस्यैकपर्णी तु पत्नी साध्वी दृढव्रता | दत्ता हिमवता तस्मै योगाचार्याय धीमते ॥ देवलं सुषुवे सा तु ब्रह्मिष्ठं मानसं सुतम् या चैतासां कुमारीणां तृतीया त्वेकपाटला | पुत्रं शतशिलाकस्य जैगीषव्यसुपस्थिता तस्यापि शङ्खलिखितौ स्मृतौ पुत्रावयोनिजौ । इत्येता वै महाभागाः कन्या हिमवतः शुभा रुद्राणी सा तु प्रवरा स्वगुणैरतिरिच्यते । अन्योन्यप्रोतिरनयोरुमाशंकरयोरथ श्लेषं संसक्तयोर्ज्ञात्वा शङ्कितः किल वृत्रहा | ताभ्यां मैथुनसक्ताभ्यामपत्योद्भवभीरुणा ॥ तयोः सकाशमिन्द्रेण प्रेषितो हव्यवाहनः अनयो रतिविघ्नं च त्वमाचर हुताशन | सर्वत्र गत एव त्वं न दोषो विद्यते तदा इत्येवमुक्ते तु तथा वह्निना च तथा कृतम् | उमादेहं समुत्सृज्य शुक्रं भूमौ विसर्जितम् ततो रुषितया देव्या शप्तोऽग्निः शांशपायन | इदं चोक्तवती वह्नि रोषगद्गदया गिरा यस्मान्मय्यवितृप्तायां रतिविघ्नं हुताशन | कृतवानस्य कर्तव्यं तस्मात्त्वमसि दुर्मतिः यदेवं बिभृतं गर्भ रौद्रं शुक्रं महाप्रभम् । गर्भ त्वं धारयस्वैवमेषा ते दण्डघारणा . ६६३ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ ॥२६ थी । हिमवान् ने हो एकपर्णी को योगाचार्य परम बुद्धिमान् असित को समर्पित किया था। एकपर्णी ने ब्रह्मनिष्ठ देवल को मानसपुत्र के रूप मे उत्पन्न किया ११४-१७। इन तीनो कुमारियों में तीसरी एकपाटला नामक जो कुमारी थी, उसने शतशिलाक के पुत्र जंगीषव्य को पतिरूप मे स्वीकार किया था, उसके भी शंख और लिखित नामक दो पुत्र हुए, जिनकी उत्पत्ति योनि से नही हुई थी । ये ही तीम महाभाग्यशालिनी हिमवान् की कल्याण दायिनो कन्याएँ है । इनमें रुद्राणी उमा अपने गुणों के कारण सब से बढ़चढ़कर थी । उमा और शंकर के पारस्परिक सम्बन्ध और प्रेम को देखकर वृत्रहा ( इन्द्र ) को सन्देह हुआ । दाम्पत्य प्रेम में अनुरक्त उन दोनों से होनेवाली संतति के भय से आतङ्कित होकर इन्द्र ने उनके पास अग्नि को भेजा और कहा, हे हुताशन ! तुम इन दोनों के रतिकर्म में जाकर विघ्न पहुँचाओं, तुम तो सर्वत्र जा सकते हो । अतः तुम्हारे वहाँ जाने पर कोई दोष न होगा |१८-२१॥ इन्द्र के कहने पर अग्नि ने वैसा ही किया जिसका परिणाम यह हुआ कि शंकर ने अपना वीर्यं उमा के शरीर में न छोडकर पृथ्वी पर गिरा दिया। शांशपायन ! इस घटना के घठित होने पर उमा को क्रोध आया और उन्होने अग्नि को शाप दिया कि हे अग्नि ! यतः तुमने मेरी तृप्ति के विना हुए ही इस रतिक्रीड़ा में विघ्न डाल दिया है, अतः तुम निश्चय ही बड़े कुबुद्धि हो, और यह जो मेरे गर्भ द्वार से बहिगत रुद्र का महान् तेजोमय वीर्य है उसे तुम गर्भरूप में वहन करो, यही मैं तुझे दण्ड दे रही हूँ । २२-२६ ।