पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६६९

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६४५ वायुपुराणम् ॥६० ॥६१ स्थूलशीर्षाः सिताभाच ह्रस्वकाश्च प्रबाहुकाः । ताम्रास्या लम्बजिह्वोष्ठा लम्बभ्रू स्थूलनासिकाः ॥५६ नीलाङ्गा लोहितग्रीदा गम्भीराक्षा बिभीषणाः । महाघोरस्वराश्चैव विकटा बद्धपिण्डिकाः स्थूलाच तुङ्गनासाच शिलासंहनना दृढाः | दारुणाभिजनाः क्रूराः प्रायशः क्लिष्टकर्मिणः सकुण्डलाङ्गदापीडा मुकुटोष्णीषधारिणः । विचित्रवस्त्राभरणाश्चित्रत्रगनुलेपना: अन्नादाः पिशितादाश्च पुरुषादाच ते स्मृताः । इत्येतद्रूपसाधर्म्यं राक्षसानां बुधैः स्मृतम् ॥ न समस्तबलं बुद्धं यतो मायाकृतं हि तत् ॥६२ पुलहस्य सृगाः पुत्राः सर्वे व्यालाच दंष्ट्रिणः | भूताः पिशाचाः सर्पाश्च भ्रमरा हस्तिनस्तथा वानराः किनराश्चैव मयूकिंपुरुषास्तथा । * येऽन्ये चैव परिकान्ता मायाक्रोधवशानुगाः अनपत्यः नतुस्तस्मिन्स्तृतो वैवस्वतेऽन्तरे | न तस्य पुत्रः पौत्रो वा तेजः संक्षिप्य वा स्थितः अत्रेवंशं प्रवक्ष्यामि तृतीयस्य प्रजापतेः | तस्य पत्न्यश्च सुन्दर्यो दशैवाऽऽसन्पतिव्रताः ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ कोई-कोई बहुत छोटे थे और कोई बहुत बड़ी बड़ी बाहुओं वाले थे। किसी के मुख ताँबे के समान लाल और जिह्वा तथा मोठ लम्बे-लम्बे थे । भौहें लम्बी और नाके मोटी थी |५६-५९ | किसी के अंग नील वर्ण के थे, किसी की ग्रोवा लाल वर्ण की थी किसी की आँखें निश्चल तथा गभीर थी । देखने मे परम भयानक थे । स्वर परम कठोर एवं दारुण थे। परम विकट तथा समूह बाँधकर चलने वाले थे । कोई-कोई परम स्थूलकाय, उठी हुई नासिका वाले, शिला के समान कठोर शरीर वाले एवं दृढ़ थे । ये सब राक्षस गण प्रायः अति दारुण निवास स्थल मे रहनेवाले तथा कठोर कर्मी थे । कुण्डल, अगद तथा माला पहनते थे । मुकुट और पगड़ी बाँधते थे । विचित्र रंग के उनके वस्त्र थे, इसी प्रकार आभूषण, माला, चन्दनादि सब कुछ विचित्र थे । वे राक्षसगण अन्न भक्षण करते थे । मॉस भी खाते थे यहाँ तक कि मनुष्यो तक को खा जाते थे— ऐसा लोग कहते हैं । पण्डित लोग उनके स्वरूप, शोल, स्वभाव आदि के बारे मे ऐसा ही स्मरण कहते है । उनके समस्त बल एवं पराक्रम का मान किसी को नहीं मालूम है, क्योंकि वे सब के सब मायावी है | ६०-६३। पुलह के पुत्र सभी प्रकार के मृग, व्याल एवं दंष्ट्रा धारी जीव हुये । इनके अतिरिक्त भूत पिशाच, सर्प, भ्रमर, हस्ती, वानर, किन्नर, मयूर, किंपुरुष तथा अन्यान्य मायावी एवं सर्वदा क्रोध के वश में रहने वाले जीव निकाय उत्पन्न हुये - वे सव पुलह को सन्तति हैं । उस वैवस्वत मन्वन्तर में महषि ऋतु को ही कोई संतति नही थी । न तो कोई पुत्र था, न पौत्र अपने तेज (बल ब्रह्मचर्य) को समेट कर वे अपने आप मे अवस्थित थे, अर्थात् नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे |६४-६६१ मब तृतीय प्रजापति मत्रि के वंश का वर्णन कर रहा हूँ | उनकी

  • एतदर्धंस्थानेऽपाठः – प्रायोऽन्योयः परिक्राम्तो मयाक्रोश वशान्वय इति ख. ग. घ. ङ्. पुस्तकेषु ।