पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६४२

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नवषष्टितमोऽध्यायः ६२१ ॥१६७ ॥१६६ त्रिशिराः शतदंष्ट्रश्च तुण्डकेशश्च राक्षसः | यक्षश्चाकम्पनश्चैव दुर्मुखश्च शिलीमुखः इत्येते राक्षसवरा विक्रान्ता गणरूपिणः । सर्वलोकचरास्ते तु त्रिदशानां समक्रमाः सप्त चान्या दुहितरस्ताः शृणुध्वं यथाक्रमम् | तासां च यः प्रजासर्गो येन चोत्पादिता गणाः ॥१६६ आलम्बा उत्कचा कृष्णा निर्ऋता कपिला शिवा । केशिनी च महाभागा भगिन्यः सप्त याः स्मृताः ताभ्यो लोकामिषादश्च हन्तारो युद्धदुर्मदाः । उदीर्णा राक्षसगणा इसे उत्पादिताः शुभाः आलम्बेयो गणः क्रूर उत्कचेयो गणस्तथा । तथा कार्ष्णेयशंवेया राक्षसा ह्यत्तमा गणाः तथैव नैॠ तो नाम त्र्यम्बकानुचरेण ह । उत्पादितः प्रजासर्गो गणेश्वरचरेण तु ॥१७१

  • उत्पादिता बलवता उदोर्णा यक्षराक्षसाः । विक्रान्ताः शौर्यसंपन्ना नैऋता देवराक्षसाः ॥

येषामधिपतिर्युक्तो नाम्ना ख्यातो विरूपकः तेषां गणशतानेका उद्धृतानां महात्मनाम् । प्रायेणानुचरन्त्येते शंकरं जगतः प्रभुम् दैत्यराजेन कुम्भेन महाकाया महात्मना । उत्पादिता महावीर्या महाबलपराक्रमाः FA ॥ १७२ ॥१७३ ॥१७४ ॥१७५ ॥१७६ श्रेष्ठ राक्षस परम पराक्रमी तथा गणरूपी थे, अर्थात् उनमें से एक एक राक्षस वीरता आदि में एक-एक समूह का सामना करने में समर्थ था । वे देवताओं के समान सभी लोकों में विचरण किया करते थे । १६५-१६८। इनके अतिरिक्त सात अन्य कन्याएँ भी थीं, उन्हें क्रमानुसार सुनिये । साथ ही उन कन्याओं द्वारा जिन प्रजाओं की सृष्टि हुई, और उनसे जिन गणों की उत्पत्ति हुई, उसे भी सुनिये । उन कन्याओं के नाम आलम्बा, उत्कचा, कृष्णा, निऋता, कपिला शिवा और महाभाग्यशालिनी केशिनी थे, ये सात उक्त राक्षसों की बहिनें कही जातो हैं | १६६-१७०। उन्ही कन्याओं द्वारा लोक में मांस खानेवाले जीवहिंसक, युद्ध में उत्कट पराक्रम दिखलानेवाले, महान राक्षसगणों की उत्पत्ति हुई, इनमें से कुछ शुभ कार्य करनेवाले भी थे । आलम्बा से उत्पन्न होनेवाले आलम्वेय नामक राक्षसगण क्रूर प्रकृति के थे, उत्कचेय गण भी उसी प्रकार के क्रूरकर्मा थे। कार्ष्णेय और य नामक राक्षसगण उत्तम गुण वाले थे । इसी प्रकार महादेव जो के अनुचर गणेश्वरों के चर ने नैॠत नामक प्रजाओं की सृष्टि को । उस बलवान् ने महान् यक्षों एवं राक्षसों को उत्पन्न किया, जो परम पराक्रमी शौर्यसम्पन्न नेॠत नाम से विख्यात हुये, उन्हे देवराक्षस कहते हैं। उन सवों का अधिपति विरूपक नामक हुआ । १७१-१७४। नैॠत नामक उद्धत स्वभाववाले उन महात्मा देवराक्षसों के सैकड़ों गण प्राय जगत् स्वामी शंकर भगवान् के अनुचर हुये । महात्मा दैत्यराज कुम्भ ने महाबलवान्, महा पराकमी, परम साहसो एवं विशालकाय कापिलेय

  • इदमधं नास्ति ख. ग. घ. ङ. पुस्तकेषु ।