पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६४०

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नवषष्टितमोऽध्यायः ६१६ ॥१४५ ॥१४६ स्वभावं प्रतिपद्यन्ते बृहन्तो यक्षराक्षसाः । त्रियमाणाः प्रसुप्ताश्च क्रुद्धा भीताः प्रहर्षिताः ततोऽब्रवीदप्सरसं त्म्यमानः स युद्धकः | गृहं मे गच्छ सुश्रोणि सपुत्रा वरवर्णनी इत्युक्ता सहसा तं च दृष्ट्वा स्वं रूपमास्थितम् । विभ्रान्ताः प्राद्रवन्भीताः क्रोधमानाप्सरोगणाः ॥ १४७ गच्छन्तीरम्वगच्छद्या पुत्रस्तां सान्त्वयगिरा। गन्धर्वाप्सरसां मध्ये तां नीत्वा स न्यवर्तत तां च दृष्ट्वा समुत्पत्ति यक्षस्याप्सरसां गणाः । यक्षाणां त्वं जनित्रीति प्रोचुस्तां वै क्रतुस्थलीम् ॥१४ जगाम सह पुत्रेण ततो यक्षः स्वमालयम् । न्यग्रोधरोहिणं नाम गुह्यका यत्र शेरते ॥ तस्मिनिवासो यक्षाणां न्यग्रोधः सर्वतः प्रियः ॥१४८ यक्षो रजतनाभस्तु गुह्यकानां पितामहः । अनुहादस्य दैत्यस्य भद्रामतिवरां सुताम् ॥ उपयेमे स भद्रायां यस्यां सणिवरो वशी जज्ञे सा मणिभद्रं च शक्रतुल्यपराक्रमस् । तयोः पत्न्यौ भगिन्यौ तु क़तुस्थल्यात्मजे शुभे नाम्ना पुण्यजनी चैव तथा देवजनी च या । विजज्ञे मणिभद्रात्तु पुत्रान्पुण्यजनी शुभान् सिद्धार्थ सूर्यतेजं च सुमन्तं नन्दनं तथा | कन्यकं यविकं चैव मणिदत्तं वसुं तथा ॥१५० ॥१५१ ॥१५२ ॥१५३ ॥ १५४ के मृत्यु के समान घोर संकट पड़ने पर, सो जाने पर, क्रुद्ध होने पर, भयभीत होने पर तथा अति प्रसन्नता के अवसर पर अपने स्वाभाविक स्वरूप पर आ जाते है । इस स्वाभाविक नियम के अनुसार वह यक्ष उस ऋतु स्थली अप्सरा को विस्मित करता हुआ वोला, हे सुन्दर कटि वाली ! सुन्दरी ! अब अपने पुत्र को साथ लेकर मेरे घर चलो | यक्ष के ऐसा कहने पर एवं सहसा अपने वास्तविक यक्ष रूप में उपस्थित देखकर सभी अप्सरायें क्रोध के मारे भ्रान्त बुद्धि हो गई और भयभीत होकर भग चली । भागती हुई अपनी सखियों के पीछे पीछे क्रतु स्थली भी चली और उसके पुत्र ने वाणी से सान्त्वना देते हुये उसे गन्धर्वों एवं अप्सराओं के समूह में ले जाकर पहुँचाया । पहुँचाने के बाद स्वयं लौट आया ११४५-१४८ अप्सराओं ने यक्ष द्वारा उसके गर्भ से पुत्रोत्पत्ति होते देखा था अतः उन्होंने एक स्वर से ऋतुस्थली से कहा कि तू यक्षों की माता है। तदनन्तर यक्ष पुत्र के साथ अपने घर को चला गया जहाँ वरगद के वृक्ष पर निवास करने वाले यक्ष गण शयन करते थे । बरगद के वृक्ष मे यक्षों का निवास स्थान है, यह बरगद का वृक्ष उन्हें सभी प्रकार से प्रिय है। यक्ष रजतनाभ गुह्यकों का पितामह था, उसने अनुह्लाद नाम दैत्य की परम सुन्दरी कन्या भद्रा के साथ अपना विवाह किया था, उस भद्रा मे जितेन्द्रिय मणिवर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । १४९-१५१ | भद्रा ने एक दूसरे पुत्र मणिभद्र को भी उत्पन्न किया, जो इन्द्र के समान पराक्रमी था । उन दोनों को पत्नी सगी बहने थी, जो ऋतुस्थली की दो पुत्रियाँ थी उनका नाम पुण्यजनी और देवजनी था। पुण्यजनी ने मणिभद्र के संयोग से जिन शुभाचारी पुत्रों को उत्पन्न किया, उनके नाम सिद्धार्थ, सूर्यतेज, सुमन्त, नन्दन, कन्यक, यविक, मणिदत्त, वसु सर्वानुभूत, राख, पिंगाक्ष, भीरु,