पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६२०

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

सप्तर्षष्टितमोऽध्यायः तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा सहस्राक्षः पुरंदरः । उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा नातर्भवतु तत्तथा सर्वमेतद्यथोक्तं ते भविष्यन्ति न संशयः । देवभूता महात्मानः कुमारा देवसंमताः ॥ देवैः सह भविष्यन्ति यज्ञभाजस्तवाऽऽत्मजाः ५६६ ॥१३२ ॥१३३ ॥१३४ ॥१३५ ॥१३६ तस्मात्ते मरुतो देवाः सर्वे चेन्द्रानुजामराः | विज्ञेयाश्र्चामराः सर्वे दिलिपुत्रास्तपस्विनः एवं तौ निश्चयं कृत्वा मातापुत्रौ तपोधनौ । जग्मतुस्त्रिदिवं हृष्टौ शक्नोऽपि त्रिदिवं गतः मरुतां हि शुभं जन्म शृणुयाद्यः पठेत वा । नावृष्टिभयमाप्नोति बह्वायुश्च भवत्युत इति श्री महापुराणे वायुप्रोक्ते उपोद्घातपादे कश्यपीयप्रजासर्गो नाम सप्तषप्टितमोऽध्यायः ॥६७॥ विचरण करें । दिति की बातें सुनकर सहस्रनेत्र पुरन्दर ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, हे मातः ! आपकी जैसी ने आज्ञा है वैसा हो होगा । इसमें तनिक भी सन्देह मत करो, जैसी आपको इच्छा है वैसा ही मैं करूंगा । ये तुम्हारे महात्मा पुत्रगण देव तुल्य हैं, यही नहीं देवताओं से भी सम्माननीय हैं, देवताओं के साथ ये भी यज्ञ में भाग पाने के अधिकारी होंगे | १३० - १३३१ ( सूत ने कहा ) ऋषिवृन्द ! यही कारण है कि वे मरुत् गम देवताओं में परिगणित हुए, इन्द्र के अनुज के रूप में उन सबों को अमरत्व को भी प्राप्ति हुई, वे परम तपस्वी दिति के पुत्र होकर भी अमर माने गये । इस प्रकार का निश्चय कर वे तपस्वी माता पुत्र परम हर्षित हुए, दिति अपने निवासस्थान को और इन्द्र स्वर्गलोक को प्रस्थित हुए । जो कोई मरुत्गणों के मंगलकारी जन्म वृत्तान्त को सुनता है अथवा पढ़ता है उसे दीर्घायु की प्राप्ति होती है और वह कभी अनावृष्टि के कारण कष्ट नही अनुभव करता |१३४-१९३६ श्री वायुमहापुराण में कश्यपीय प्रजासर्गवर्णन नामक सरसठवाँ अध्याय समाप्त ||६७||