पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६१६

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सप्तषष्टितमोऽध्यायः एवमुक्त्वा महातेजास्तया समवसत्प्रभुः । तामालिङ्गघ त्रिभुवनं जगाम भगवानृषिः गते भर्तरि सा देवी दितिः परमहर्षिता | कुशलं वनमासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम् तपस्तस्यां तु कुर्वव्यां परिचर्या चकार ह | सहस्राक्षः सुरश्रेष्ठः परया गुणसंपदा अग्नि समित्कुशं काष्ठं फलं मूलं तथैव च । न्यवेदयत्सहस्राक्षो यच्चान्यदपि किंचन गात्रसंवाहनैश्चैव श्रमापनयनैस्तथा । शनः सर्वेषु लोकेषु दिति परिचचार है | एवमाराधिता शक्रसुवाचाथ दितिस्तथा दितिरुवाच प्रीता तेऽहं सुरश्रेष्ठ दश वर्षाणि पुत्रक | अवशिष्टानि भद्रं ते भ्रातरं द्रक्ष्यसे ततः जयलिप्सुं समाधास्ये लब्ध्वाऽहं तादृशं सुतम् | त्रैलोक्यविजयं पुत्र प्राप्स्यासि सह तेन वै एवमुक्त्वा दितिः शक्तं मध्यं प्राप्ते दिवाकरे | निद्रायाऽपहृता देवी जान्वोः कृत्वा शिरस्तदा दृष्ट्वा तामझुचि शक्नः पादयोर्गतमूर्धजाम् | तस्यास्तदन्तरं लब्ध्वा जहास च मुमोद च ५६५ ॥६३ ॥९४ ॥९५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ IEE ॥१०० ॥१०१ महर्षि कश्यप ने उसके साथ सहवास किया और उसका आलिंगनकर त्रिभुवन भ्रमण के निमित्त गमन किया । पतिदेव कश्यप के चले जाने पर परम हर्षित हो देवी दिति ने कुशल वन में परम कठोर तप किया |१२-१४। उस घोर तपस्या में लोन दिति की उस सहस्रनेत्र देवराज इन्द्र ने अनेक प्रकार की सेवाएं की। अग्नि, समिधा, कुश, काष्ठ, फल, मूल आदि तथा अन्यान्य पूजोपयोगी वस्तुओं को सहस्रनेत्र इन्द्र ला- लाकर देता था और परिश्रम के खेद को दूर करने के लिए गात्र संवाहन (मर्दन, पैर शिर आदि का दवाना) करता था। सभी लोगों को देखते हुये इन्द्र ने दिति की विधिवत् परिचर्या की। इस प्रकार इन्द्र द्वारा भली-भाँति सत्कार एव शुश्रूषा पाकर दिति ने कहा १९५-९७ दिति ने कहा- हे सुरश्रेष्ठ ! मै तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ । हे बेटे ! तुम्हारे कल्याण के दस वर्ष और रह गये है, जब तुम अपने भाई को देखोगे । जय की अभिलाषा से युक्त परम पराक्रमशील पुत्र को प्राप्त कर मेरी सारी आपत्तियाँ दूर हो जायँगी । हे पुत्र ! उसी के साथ समस्त त्रैलोक्य विजय का मैं सुख अनुभव करूंगी।' इन्द्र से ऐसी बाते कर दिति मध्याह्न के अवसर पर, जिस समय सूर्य आकाश के मध्य में विराजमान था, निद्रा से अभिभूत हो इन्द्र के दोनों जंघों पर शिर रखकर सो गई। दोनो पैरों पर बाल विखरने के कारण अपवित्र अवस्था में दिति को देखकर, और अपने स्वार्थ साधन का उत्तम अवसर देखकर इन्द्र परम मुदित होकर हँसने लगे ।९८-१०१॥ तदनन्तर महायशस्वी पुरन्दर ने दिति के फैले हुए शरीर में प्रवेश किया और प्रविष्ट